पलट कर देखें तो सही

By: Aug 1st, 2017 12:02 am

बावजूद इसके कि तीसा प्रकरण के आमने-सामने दो समुदाय खड़े नजर आए, लेकिन पूरे मामले में एक शिक्षक की नीयत का जनाजा उठा है। हैरानी यह कि जिन कंदराओं में कोटखाई मामले का दोष छिपा है, उससे भी आगे नीचता का सबूत एक शिक्षक ने दिया। जाहिर है इससे अभद्र गाली हिमाचली समाज को नहीं मिली होगी, क्योंकि जहां बच्चों के आचरण को स्कूल के पौधों के रूप में उगाया जाना था वहां एक माली डकैत निकला और इससे नफरत और हिकारत शिक्षण संस्थान की दीवारों से टकराई। हम न अन्य शिक्षकों की बेवजह पिटाई को जायज ठहरा सकते हैं और न ही एक समुदाय के प्रति दिखाई गई हिंसा व आगजनी को सही मानेंगे। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना होने के साथ-साथ सामाजिक भाईचारे की आबरू पर भी भारी पड़ी है। न स्कूल ऐसे दुष्कर्म का पात्र है और न ही सामाजिक समरसता इससे छिन्न-भिन्न हो सकती है। विडंबना यह है कि कुछ असामाजिक तत्त्व हिमाचली ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की साजिशों में संलिप्त हैं और इसके साथ राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को खारिज करना गैरमुमकिन है। मामले की संवेदनशीलता के दोनों पहलू हिमाचल के लिए किसी सदमे से कम नहीं, फिर भी हमें चंबा में दर्ज हुए कोटखाई सरीखे प्रकरण की गंभीरता को सर्वप्रथम देखना होगा। कोटखाई और चंबा की घटनाओं को पुनः हिमाचली बिटिया को सुरक्षा नहीं मिली। हैरानी तो यह कि अब स्कूल की दीवारों के भीतर भी दरिंदा पहुंच गया। लानत है ऐसे शख्स पर जिसने शिक्षा के दामन पर दाग लगाए हैं। अपमानित तो शिक्षा ही हुई, क्योंकि इससे निकला शिक्षक भी अपनी ही शिष्या का शिकारी बन गया। यह बेटी किसी मजहब की है, तो वह इनसानियत है और जिसके सामने कोई दीवार या बचाव नहीं। वहां पूरा समाज माफी मांग सकता है कि क्यों इसके वजूद से एक ऐसा अध्यापक पैदा हुआ जिसके गुनाह का कोई क्षमादान नहीं। यह शिक्षक किसी समुदाय, जाति, धर्म या क्षेत्र का नहीं, बल्कि ऐसा दरिंदा है जिसके खिलाफ हर सबूत एक सूली है। हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि एक अध्यापक की घिनौनी करतूत से पूरे वर्ग पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता और न ही न्याय-अन्याय को परिभाषित करता आक्रोश अपना हिंसात्मक फैसला सुना सकता है। प्रकरण के दोनों ओर समाज खतरे में है। एक ओर समाज अपनी बेटी को दरिंदों की नजर से बचा नहीं पा रहा है, जबकि दूसरी ओर समाज का एक ऐसा चेहरा भी दिखाई देता है जो हर मसले को सरहद बनाकर धार्मिक विद्वेष को हवा दे रहा है। भंजराडू बाजार में दहकते शोले दरअसल सियासी आंच पर पकी साजिश है और इसके हर कारिंदे को नहीं बख्शा जा सकता। यहां मामले की संवेदनशीलता समझते हुए पुलिस तथा प्रशासन की तारीफ करनी होगी कि आवश्यक कार्रवाई तथा चौकसी बरती गई, वरना हर ऐसे सुराख से झांकने की आदत अब राजनीति को होने लगी है। यह पुलिस की छवि से जुड़ा दूसरा मामला है, लेकिन शिमला से कहीं अलग चंबा में वर्दी ने हालात और कर्त्तव्य के बीच सामंजस्य बैठाया है। समाज का भी यह दायित्व है कि जांच के दायरों का अतिक्रमण न करे और जिस तरह एक दुष्कर्म को हिंसा के साथ जोड़ा जा रहा है, उसे अनुचित व अप्रासंगिक बनाया जाए। बेशक यह साधारण मामले की तरह नहीं है, फिर भी इसकी जांच व दोष को अंजाम तक पहुंचाने के लिए संयम व सीमा से बाहर होने की इजाजत समाज को नहीं मिलती। मसले को दो समुदायों के बीच बांटने की साजिश अगर हुई है तो उसे भी बेनकाब करना पड़ेगा। समाज की ठेकेदारी न तो राजनीति को करनी चाहिए और न ही हिमाचल में कानून-व्यवस्था को अविश्वास की ओर धकेला जा सकता है। हिमाचल की छवि को परिमार्जित करने की आवश्यकता में समाज के भी अनेक पहलू जुड़ जाते हैं। ऐसे में किसी भी विकराल होती परिस्थिति या अपराध के खिलाफ छिड़ी मुहिम में समाज की पहरेदारी का गंभीर पक्ष यूं ही विचलित नहीं होना चाहिए। यहां राज्य की पुलिस व्यवस्था तथा न्याय प्रक्रिया को भी सक्रियता के साथ ऐसे तत्त्वों को सबक सिखाना पड़ेगा, ताकि सामूहिक जिम्मेदारी में हिमाचल के आदर्श खंडित न हों। दुर्भाग्यवश कुछ मामलों ने सारे परिदृश्य को गंदगी व दरिंदगी के नाले में परिवर्तित कर दिया है। अतः इसके खिलाफ समाज को अपने आईने साफ करते हुए सर्वप्रथम अपने आसपास के प्रतिबिंब पर निगाह रखनी पड़ेगी।

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