राम के नाम पर फतवा !

By: Aug 1st, 2017 12:02 am

इस्लाम इतना तंगदिल मजहब है या उसके कथित प्रतिनिधियों-मुफ्ती, मौलवी, मुल्ला की सोच इतनी संकीर्ण है कि यदि उत्तेजना, भावुकता या आवेग के किन्हीं पलों में किसी मुसलमान की जुबां से ‘जय श्रीराम’ का नारा निकल जाए, तो क्या उसके लिए ‘इस्लाम निकाला’ का फतवा जारी कर दिया जाएगा? दरअसल ऐसा किसी और की जुबां से नहीं, बल्कि बिहार कैबिनेट के नए मंत्री खुर्शीद फिरोज आलम से निकला है। ‘जय श्रीराम’… इतना भर कहना था कि ‘इमारत-ए-शरिया’ के मुफ्ती सोहेल कासमी ने फतवा जारी कर दिया कि उन्हें इस्लाम से निकाला, यानी गैर मुसलमान माना जाए। दलील यह दी गई कि इस्लाम के मुताबिक रहीम और राम को इकट्ठा नहीं रखा जा सकता और मंत्री ने तो बयान दिया है कि वह राम की पूजा करते हैं, माथा भी टेकते हैं। यदि भविष्य में भी ऐसा करना पड़ा, तो वह जरूर करेंगे। दरअसल बिहार में नीतीश कुमार के जदयू और भाजपा-एनडीए की साझा सरकार बनी है। उस नए राजनीतिक समीकरण के तहत मुस्लिम मंत्री ने खुश होकर ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा दिया होगा। उसने ऐसा कौन सा जघन्य पाप कर दिया कि उसे तुरंत इस्लाम से निकालने का फतवा जारी कर दिया गया? क्या 21वीं सदी में भी फतवे की कोई कानूनी या संवैधानिक मान्यता है? क्या हजरत मोहम्मद ने अपने जन्मकाल के दौर में ही इन फतवेदारियों को अधिकृत किया था? इस्लाम कब तक ऐसे कठमुल्ला और तंगदिल मौलानाओं के सहारे चलता रहेगा? ये फतवेबाज तो क्रिकेटर इरफान पठान के साथ उसकी बीबी की शर्मिली अदा पर भी निगाह रखते हैं। इन फतवेबाजों को क्रिकेट के तेज गेंदबाज मोहम्मद शम्मी की बीबी के लिबास पर भी आपत्ति है। यदि कैफ की अपने बेटे के साथ शतरंज खेलने की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती है, तो फतवेबाज इसे भी इस्लाम में ‘हराम’ मानते हैं। कैफ ने एक सार्थक सवाल किया है-‘क्या सांस लेना भी हराम है?’ इन क्रिकेटरों और आम  चेहरों की तो बात छोड़ें, कोलकाता की एक मस्जिद के पूर्व इमाम ने तो प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ ही फतवा जारी कर दिया था और फिर ऐसी भद्दी गालियों का सार्वजनिक तौर पर इस्तेमाल किया था कि हम उन अपशब्दों को लिखना भी अनैतिक मानते हैं। मुसलमानों के कथित धर्मगुरु इतने तंगदिल, पूर्वाग्रही और कट्टरपंथी क्यों हैं? बिहार के मंत्री वाले मुद्दे पर कुछ टीवी चैनल बहस दिखा रहे थे। उनके मौजूद मौलाना इस कद्र भड़क रहे थे मानो इस्लाम का कोई निजी नुकसान हो गया। ये फतवेबाज तीन तलाक पर किसी बहस या विमर्श को इस्लाम विरोधी मानते हैं। वंदेमातरम् और भारत माता की जय सरीखे मुद्दे उठें, तो उनकी दलील होती है कि इस्लाम और कुरान इसकी इजाजत नहीं देते। फतवेबाज देश में समान नागरिक संहिता की संवैधानिक व्यवस्था को भी मानने को तैयार नहीं, क्योंकि इस्लाम इजाजत नहीं देता। अरे कठमुल्लो! यह देश संविधान से चलेगा या इस्लाम से? हालांकि बिहार के मंत्री ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के निर्देश पर अपना बयान वापस ले लिया और माफी भी मांग ली, लेकिन मुफ्ती कासमी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि अब खुर्शीद आलम मुसलमान हैं या नहीं। राम और रहीम को तो हमने हिंदी के भक्तिकाल काव्य परंपरा में एक साथ पढ़ा है। इसी परंपरा में मलिक मोहम्मद जायसी सरीखे मुस्लिम कवि ने हिंदू महारानी पद्मावती पर ‘पद्मावत’ महाकाव्य लिख दिया था, जो आज भी सूफी काव्य की अप्रतिम रचना है। इनके अलावा कई और मुगल शासकों और विद्वानों ने हिंदू धर्म से जुड़ी कृतियों के अनुवाद किए या भाष्य तैयार किए, लेकिन विडंबना है कि इस्लाम की पैरोकारी के नाम पर मुफ्ती, मौलवी और मौलाना आज भी 14वीं शताब्दी में जी रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट फतवे की अवधारणा को ही ‘अवैध’ करार दे चुका है, लेकिन फिर भी फतवेबाजी जारी है। दरअसल हिंदू और मुसलमान के कट्टर विभाजन के लिए ये फतवेबाज ही कसूरवार और जिम्मेदार हैं। मुस्लिम मंत्री का मानना था कि राम और रहीम एक ही हैं। सबका मालिक एक ही है, बेशक उसे कोई भी नाम दें और आस्था-पूजा का तरीका कुछ भी हो। आखिर खुर्शीद भी लाखों लोगों के विश्वास और जनादेश के प्रतिनिधि हैं। कठमुल्लो! जरा सोच और दृष्टि की व्यापकता तो दिखाएं।

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