विष्णु पुराण

By: Aug 12th, 2017 12:05 am

मां मन्यसे त्व सद्दशं नून शक्रतरद्विजैः।

अतीऽवमानत्मासु मानिता कृतम्।।

महत्ता भवता यस्मात्क्षिप्ता महीतले।

तस्मात्प्रणष्टलक्ष्मीकं त्रेलोक्य ते भविष्यति।।

यस्य सञ्जातकोपस्य भयमेति चराचरम्।

तं त्धं मामतिगर्वेण देवराजावमत्यरे।।

महेंद्रो वारणस्कन्धादवतीर्य वरान्वितः।

प्रसादयामास मुनि दुर्वाससंकल्पम्।।

प्रसात्तामाना स सदा प्रणिपातपुरः सरम्।

इत्युवाच सहस्राक्ष दुर्वासा मुनिसत्तमः।।

नाहं कृपणहृदयो न च मां भजते क्षमा।

अन्ये ते मुनयः शक्र दुर्वासामहि माम्।।

गौतमादिभिरत्यैवस्त्वं गर्वमारोपितो मुधा।

अक्षान्तिसारसवस्व दुर्वासमववेहि माम्।।

अरे इंद्र! तू अवश्य ही मुझे अन्य विप्रों जैसा ही समझता है, तभी तो तूने हमारा इस प्रकार निरादर किया है। तूने मेरे द्वारा दी गई माला को भूमि पर फेंक दिया इसलिए तेरा यह त्रिभूवन भी अब शीघ्र ही श्रीहीनता को प्राप्त होगा। अरे देवराज! जिसके क्रोध से भयभीत हुआ यह संपूर्ण चराचरात्मक विश्व कंपायमान होने लगता है, उसी का तूने अत्यंत अहंकार पूर्वक इस प्रकार तिरस्कार किया है। श्री पराशरजी बोले, यह सुनकर इंद्र तुरंत ही ऐरावत से उतर पड़े और अनुनय विनयपूर्वक उन पाप रहित मुनि को प्रसन्न करने लगे। इंद्र द्वारा इस प्रकार प्रणामादि किए जाने पर महर्षि दुर्वासा ने उनसे इस प्रकार कहा। दुर्वासा बोले, हे इंद्र! मैं कृपालू चित्त वाला नहीं हूं, मेरे अंतःकरण में क्षमा किंचित भी नहीं ठहर सकती। वह मुनि तो दूसरे ही हैं, मेरा नाम तो दुर्वासा है। अरे गौतम आदि ऋषियों ने तुझे अकारण ही इतना मुख लगा लिया है, परंतु याद रखना कि मैं तो सदा ही अक्षमाशील दुर्वासा हूं।

बसिष्ठार्द्यर्दयासारैसस्तोत्र कुर्वद्भिरुच्चकैः।

गर्व गतोऽसि येनैवं मापद्यामन्यसे।

ज्वलज्जटाकलापस्य भृकुटोकुटटिल मुखम।

निरीक्ष्य कस्त्रिभुवने मम यो न गतो भयम्।

नाहं क्षमिष्ये बहुना किमुक्तेन शक्रतो।

विडंबनामिमो भूयः करोष्यनुनयात्मिकाम्।

इत्युक्तवा प्रययौ विप्रो देवाराजोऽपि त पुनः।

आरुह्यरावर्त ब्रह्मर्न प्रययावमरावताम्।

ततः प्रभृति निःश्रोक सशक्रं भुवनत्रयम्।

मैत्रैयासीदपध्वस्तं सक्ष्मड़ीणौषधिवीरुधम्।

न यज्ञाः समवन्त न तपस्यन्ति तापसाः।

न च दानादिधिर्मेषु मनश्चक्रे तदा जनः।

निःसत्वाः सकला लोका लोभद्यूपहतेन्द्रियां।

स्वल्पेऽपि हि बभूवुस्ते साभिलाषा द्विजोत्तमः।

दयावतार वशिष्ठजी आदि ने मेरी बहुत-बहुत प्रशंसा की है, इस लिए तू घोर अहंकारी हो गया है,इसी कारण तूने मेरा इस प्रकार से अपमान किया है। इस संसार में ऐसा कौन है, जो मेरी टेढ़ी भृकुटी और प्रज्वलित जटा कलाप को देखकर मुझसे न डरता। हे शत क्रतो। अब तू बारंबार अनुनथ विनय करने का ढोंग करने चला है, परंतु मुझ पर उसका कोई प्रभाव नहीं है, मैं तुझे कदापि क्षमा नहीं करूंगा। श्री पाराशरजी ने कहा, हे व्रिपे। वह ब्रह्मर्षि ऐसा कहकर चले गए और इंद्र भी अपने ऐरावत पर बैठकर अमरावती को गए। हे मैत्रेयजी! उसी समय से इंद्र सहित तीनों लोक वृक्ष लतादिके क्षीण हो जाने के कारण श्री हीन तथा ध्वस्त होने लगे। तभी से यज्ञों का अनुष्ठान रुक गया, तपस्वियों ने तप और दानियों ने दान करना छोड़ दिया। हे विप्रवर! सभी लोक लोभादिके वश में पड़कर सत्वहीन हो गए तथा तुच्छ पदार्थों की भी कामना करने लगे।

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