सत्य का अर्थ

By: Aug 26th, 2017 12:05 am

अवधेशानंद गिरि

वेदांत ग्रंथों में व्यावहारिक दृष्टि से ब्रह्म  के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए ईश्वर को कारण ब्रह्म  और जगत को कार्य ब्रह्म कहा गया है। इस सृष्टि में मानव देह की उपलब्धता सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। मनुष्य जीवन की प्राप्ति परमेश्वर के अनुग्रह का ही फल है जिसने संपूर्ण सृष्टि का सृजन किया है…

जो अनेक ग्रंथों में लिखा है ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है कोई अन्य नहीं। दार्शनिक दृष्टि से यह  अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।  इस दृश्यमान जगत में सत्य क्या है, मिथ्या क्या है तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर संबंध है। संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म नाम से श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है। जो था, जो है और जो सदैव रहेगा वही तो ब्रह्म है। संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है। संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही जीव का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे जागने पर स्वप्नकाल के द्रष्टा और दृश्य का को लोप हो जाता है।  सत्य का अर्थ है, जिसका तीनों कालों में बोध नहीं होता अर्थात जो था, जो है और जो रहेगा। इस दृष्टि से जगत ब्रह्म सापेक्ष है। ब्रह्म  को जगत के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता। जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है, उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था। दूसरे शब्दों में, ब्रह्म  का अस्तित्व सदैव रहता है। वेदांत ग्रंथों में व्यावहारिक दृष्टि से ब्रह्म  के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए ईश्वर को कारण ब्रह्म  और जगत को कार्य ब्रह्म कहा गया है। इस सृष्टि में मानव देह की उपलब्धता सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। मनुष्य जीवन की प्राप्ति परमेश्वर के अनुग्रह का ही फल है जिसने संपूर्ण सृष्टि का सृजन किया है। इस संसार में मनुष्य जन्म से ही दो तरह की अनुभूतियों से परिचय होता है सुख और दुख। सुख-दुख के विषय में विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे निश्चित रूप से जीवन में आई परिस्थितियों से जुड़े रहते हैं। परिस्थिति अनुकूल होती या प्रतिकूल। अनुकूल परिस्थितियों से सुख मिलता है जबकि प्रतिकूल परिस्थितियों से दुख की प्राप्ति होती है। मनुष्य के कल्याण एवं भगवत्प्राप्ति के साधन हेतु अनुकूल परस्थितियों की अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थितियां अधिक उत्तम सिद्ध होती हैं। अनुकूल परिस्थितियां होने पर मनुष्य भौतिकता में फंस जाता है, लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति आने पर ऐसी संभावना लगभग नहीं रहती तथा मन परमपिता परमात्मा के चरणों में लगने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। प्रतिकूल परिस्थितियां आने पर मानव को प्रभु का अनुग्रह मानना चाहिए क्योंकि यह कृपा केवल उन्हीं पर बरसती है जिन पर उनका विशेष स्नेह होता है। प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है, क्योंकि ऐसे समय में सबसे पहले धैर्य, फिर मित्रादि सभी साथ छोड़ने लगते हैं। यदि ऐसी स्थिति में मनुष्य विचलित होने लगे तो उसका मनोबल टूटने लगेगा। परंतु यदि प्रभु पर विश्वास रखते हुए इनका सामना किया जाए तो मनुष्य का आत्मिक विकास होगा। ब्रह्म के चिंतन में वृद्धि होगी, दुष्प्रवृत्तियों से गुजरने वाला व्यक्ति वैसे ही सफल होकर निकलता है जैसे तपने के पश्चात सोना अधिक चमकदार हो जाता है। सभी का मानना है कि बिना किसी संतुलित संचालन व्यवस्था के यह संपूर्ण ब्रह्मांड इतने सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता। यह सर्वोच्च नियामक सत्ता वैदिक दर्शनों में ब्रह्म  है। जिस प्रकार मिट्टी से निर्मित पात्रों का अलग-अलग नाम रूप होने के पश्चात भी मूल रूप मिट्टी ही होती है, इसी प्रकार जो भी जड़ अथवा चेतन तत्त्व विभिन्न नाम रूप से ज्ञात होते हैं, वे मूल रूप से ब्रह्म ही हैं।

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