कश्मीरी हिंदू बनाम रोहिंग्या

By: Sep 18th, 2017 12:02 am

एक तरफ करीब 25,000 हिंदू भारत के नागरिक हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उन्हें न तो नागरिकता हासिल है और न ही कोई अधिकार मिला है। मामला अब भी सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के विचाराधीन है। दूसरी ओर सांसद ओवैसी ने लेखिका-बहिन जी तसलीमा को रोहिंग्या मुस्लिम ‘भाइयों’ के बराबर माना है। लाखों तिब्बतियों के साथ रोहिंग्या मुसलमानों की तुलना करते हुए आग्रह किया है कि उन्हें भी भारत में ‘शरण’ दी जाए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने संविधान और संघीय देश की तमाम हदें पार करते हुए संयुक्त राष्ट्र को पत्र लिखने का ऐलान किया है कि हम रोहिंग्या मुसलमानों को ‘शरणार्थी’ बनाने को तैयार हैं, लेकिन केंद्र सरकार उन्हें भारत के बाहर खदेड़ने पर आमादा है। ये पूरी तरह सियासी तुलनाएं हैं, जिनके सामने देश को ‘बौना’ समझा जा रहा है। दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किए गए हैं, टीवी चैनलों की बहसों में भारत दोफाड़ महसूस होता है। एक ओर रोहिंग्या विरोधी पक्ष है, तो दूसरी ओर रोहिंग्या मुसलमानों को शरणार्थी न बनाने पर सवाल है कि क्या मुसलमान होने के कारण ऐसा किया जा रहा है? क्या सभी मुसलमानों को आतंकी माना जा सकता है? हमारा एक ही बुनियादी सवाल है कि क्या भारत देश ‘धर्मशाला’ है कि जिसे चाहें, ठहरा लें, शरण दे दें? हम इन सवालों के परे उस विडंबना की ओर ध्यान आकर्षित कराना चाहते हैं, जो अपने ही हिंदुस्तान में विरोधाभास की जिंदगी जी रहे हैं। एक विधान, एक निशान, एक संविधान की भावना ध्वस्त हुई है। जम्मू-कश्मीर में इन हिंदू परिवारों को मजबूरन आना पड़ा था, जब पाकिस्तान की ओर से कबायलियों ने युद्ध छेड़ दिया था। हिंदू परिवार भारत को अपना देश मानकर भागे चले आए थे। उन्हें जम्मू, घाटी और लद्दाख में शरण मिली, लेकिन उन्हें एक अदद कश्मीरी वाले नागरिक अधिकार नहीं दिए गए। उन हिंदुओं को सरकारी नौकरी नहीं दी गई,उनके द्वारा कश्मीर में ही प्रॉपर्टी खरीदने पर पाबंदी आज भी है और सबसे त्रासद पहलू यह है कि 70 सालों की  रिहाइश के बावजूद उन्हें कश्मीर राज्य की नागरिकता नहीं दी गई है। नतीजतन वे विधानसभा, पंचायत और अन्य स्थानीय निकायों के चुनावों में वोट नहीं दे सकते। संवैधानिक मौलिक अधिकारों को ठेंगा…! चूंकि भारत सरकार ने उन हिंदुओं को नागरिकता दी थी, लिहाजा वे लोकसभा चुनाव में मताधिकार का इस्तेमाल करते रहे हैं। दरअसल पाकिस्तान से हिंदू अक्तूबर,1947 में और उसके बाद 1965 तथा 1971 के युद्धों के बाद जम्मू-कश्मीर में आए। इस दौरान 1982 में नेशनल कान्फ्रेंस के विधायक अब्दुल रहीम ने एक बिल विधानसभा में पेश किया-जम्मू कश्मीर पुनर्वास बिल। विषय यह था कि जो 1947-54 के दौरान पाकिस्तान चले गए थे और अब कश्मीर में लौटना चाहते हैं, तो उन्हें आने की इजाजत दी जाएगी। तब जम्मू-कश्मीर के गवर्नर बीके नेहरू थे। उन्होंने पारित बिल को वापस विधानसभा को भेज दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी बात की। जब सदन ने वही बिल दोबारा पारित कर गवर्नर को भेजा, तो उन्होंने राष्ट्रपति की राय के लिए बिल भारत के राष्ट्रपति को भेज दिया। तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने उस बिल पर सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी। करीब 20 साल बाद 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने इस टिप्पणी के साथ बिल वापस भेज दिया कि इस मामले में हम कुछ भी नहीं कह सकते। चूंकि गवर्नर दोबारा पारित बिल पर हस्ताक्षर करने को संवैधानिक तौर पर विवश हैं, लिहाजा वह बिल कश्मीर में कानून बन गया। हालांकि केंद्र की सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने हिंदू परिवारों को 5 लाख रुपए प्रति का मुआवजा दिया। जहां नौकरियां दी जा सकती थीं, वहां नौकरी दी, लेकिन बुनियादी सवाल यथावत है कि वे जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं बन सके हैं। इस दौरान पैंथर्स पार्टी के मुखिया भीम सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाल दी कि मौजूदा बिल के तहत कोई भी आतंकी, कोई भी पाकिस्तानी कश्मीर में घुस सकता है। अब संविधान पीठ इस मामले को सुन रही है। सवाल यह है कि हम अपने ही घर में हिंदुओं की बुनियादी पहचान निश्चित नहीं करा सकते और रोहिंग्या मुसलमानों को शरणार्थी बना लें। वे पहले से ही अवैध रूप से करीब 40,000 भारत में बसे हैं। उनमें आतंकवादी भी शामिल हो सकते हैं। यदि मानवाधिकार रोहिंग्या  लोगों के हैं, तो कश्मीरी हिंदुओं के क्यों नहीं? इस सवाल पर भी संयुक्त राष्ट्र के आयोग और अन्य एजेंसियां जरूर बोलें।


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