जागता रहना चाहिए कलाकार

By: Sep 16th, 2017 12:05 am

गुरुओं, अवतारों, पैगंबरों, ऐतिहासिक पात्रों तथा कांगड़ा ब्राइड जैसे कलात्मक चित्रों के रचयिता सोभा सिंह भले ही पंजाब से थे, लेकिन उनका अधिकतर जीवन अंद्रेटा (हिमाचल) की प्राकृतिक छांव में सृजनशीलता में बीता। इन्हीं की जीवनी और उनके विविध विषयों पर विचारों को लेकर आए हैं प्रसिद्ध लेखक डॉ, कुलवंत सिंह खोखर। उनकी लिखी पुस्तक ‘सोल एंड प्रिंसिपल्स’ में सोभा सिंह के दार्शनिक विचारों का संकलन व विश्लेषण किया गया है। किताब की विशेषता यह है कि इसमें कला या चित्रकला ही नहीं, बल्कि अन्य सामाजिक विषयों पर भी मंथन किया गया है। आस्था के विभिन्न अंकों में हम उन पर लिखी इसी किताब के मुख्य अंश छापेंगे जो आध्यात्मिक पहलुओं को रेखांकित करते हैं। इस अंक में पेश हैं कला पर उनके विचार :

मेरे दर्शन में धर्म पहले नंबर पर, सेक्स दूसरे पर तथा परिग्रह की भावना तीसरे नंबर पर आती है जो आम तौर पर लोगों के जीवन को निर्देशित करते हैं। धर्म मानसिक, जबकि सेक्स मनुष्य के शारीरिक पहलू से जुड़ा है। धर्म को व्यक्ति के आध्यात्मिक पक्ष को संरक्षित करना चाहिए। जब धर्म की मुहर उस पर लग जाती है तो पूरी चीज नष्ट हो जाती है। वह मालिक बन जाता है। वह धर्म का सार ले लेता है और बाकी छोड़ देता है। अब वह किसी को सहन नहीं करता और न ही उसे कोई सहन करता है। धर्म के नाम पर अतुलनीय अत्याचार हुए हैं। यह धर्म की गलती नहीं है, बल्कि धर्म के ठेकेदार इसका दुरुपयोग करते रहे हैं। गुरुओं, पैगंबरों व अवतारों को चित्रित करके मैंने लोगों की अपने मूल सार को पहचानने में मदद करने की कोशिश की। मैं समझता हूं कि कला का अपने आप में कोई महत्व नहीं है, लेकिन इसमें जो अभिव्यक्ति होती है, उसका वास्तविक महत्व होता है। कला एक माध्यम है और इसी तरह चित्रकला, कविता, साहित्य व संगीत भी होता है। महत्व इस तथ्य में है कि कलाकार के भीतर का आदमी सोना नहीं चाहिए, उसे पूरी तरह सचेत होना चाहिए। उसमें पशु जैसा व्यक्ति नहीं, बल्कि आध्यात्मिक व्यक्ति होना चाहिए जो कि लोगों को जगाने में सक्षम होता है। असभ्य रूप हटा देना चाहिए जो अब बीते जमाने की बात है। इसके बजाय एक कलाकार को आदर्श रूप लेना चाहिए और इसे अपनी चित्रकला में किसी व्यक्ति के माध्यम से प्रतीक के रूप में पेश करना चाहिए। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि कलाकार जो आदर्श दूसरों के सामने रखना चाहता है, वे उसमें भी होने चाहिएं। उसके लिए प्रतीक अर्थात अमूर्त व मूर्त एक ही होने चाहिएं। कलाकार की इसमें पूरी आस्था होनी चाहिए ताकि जो वह दूसरों के समक्ष रखता है, उसमें वे विश्वास कर सकें। इसके बावजूद एक सफल कलाकार वह है जो विस्तृत अर्थों में मानवता को समझता तथा प्यार करता है। कला की अपनी सीमाएं होती हैं। इसके पीछे एक संचालन कारक आदमी है। एक बच्चे के हाथ में अगर पिस्टल दे दी जाए तो इससे बच्चे को क्षति हो सकती है, संत को यह दी जाए तो वह इसका सदुपयोग दूसरे की रक्षा के लिए करेगा और अगर किसी डकैत को दी जाए तो वह निश्चित रूप से अपराध को अंजाम देने के लिए इसका प्रयोग करेगा। हथियार वही है। पिस्टल अपने आप में साधन मात्र है। इसी तरह कला भी एक साधन है। इसमें महत्व वाली बात कलाकार की प्रतिभा है। एक चित्रकार प्रकृति अथवा एक आदमी का चित्र बनाता है। दूसरा भीतरी समझ, पसंद, नापसंद, अपने आदर्शों की वास्तविकता को चित्रित करता है। ऐसा सच्चा और प्रतिभाशाली व्यक्ति हमारे भीतर हमेशा होता है, लेकिन लोभ के कारण वह दिखाई नहीं देता। एक कलाकार को यह पर्दे हटा लेने चाहिएं। विख्यात कवि कालीदास जब एक देवी की व्याख्या करते हैं तो वह उनके चरणों से शुरुआत करते हैं तथा माथे पर जाकर इसका अंत करते हैं। वह जब एक महिला की व्याख्या करते हैं तो वह उसके सिर पर बिखरे बालों से शुरुआत करते हैं तथा उसकी रेशमी, चिकनी व कोमल चीजों पर अंत करते हैं। यह एक देवी व एक आम महिला को देखने का अलग-अलग तरीका है।


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