पावन तीर्थ है कन्याकुमारी

By: Sep 2nd, 2017 12:07 am

पावन तीर्थ है कन्याकुमारीपावन तीर्थ है कन्याकुमारीकन्याकुमारी मंदिर ऊंचे चौकोर पथरीले स्थान पर स्थित है, जिसके तीन ओर सागर की  लहरें मचलती रहती हैं। विशाल तथा कलात्मक गोपुरम के साथ मुख्य मंदिर के चारों ओर ऊंची दीवार है, जिसमें चारों दिशाओं की ओर चार द्वार हैं। मंदिर के गर्भगृह में देवी कन्याकुमारी की आकर्षक सुंदर मूर्ति खड़ी है। पूर्व दिशा की ओर मुख किए देवी के एक हाथ में माला है। कौमार्य के प्रतीक के रूप में नाक में हीरे की रत्नजडि़त नथ पहन रखी है। आरती के समय पूर्ण शृंगार के साथ इस दिव्य मूर्ति की शोभा अद्भुत होती है, विशेषकर नाक के हीरे की चमक दर्शकों को आकर्षित करती है। कन्याकुमारी मंदिर के पास ही भद्रकाली का मंदिर है। भद्रकाली को कुमारी देवी की मुख्य सहेली कहा जाता है। इसकी गणना प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में की जाती है। इसी मंदिर में दीवार के पास संकटमोचन हनुमान की मूर्ति है, जो पूरे संसार की सुरक्षा के लिए स्थित है। देवी कन्याकुमारी की आराधना अत्यंत प्राचीनकाल से होती आई है। महाभारत तथा पुराणों में भी इस पावन तीर्थ का उल्लेख मिलता है। सीता जी की खोज में भटकते श्रीराम भी यहां पहुंचे थे, तो देवी ने गंधमादन पर्वत (आधुनिक रामेश्वरम धाम) की ओर जाने का संकेत दिया था।

धार्मिक कथा : बाणासुर नामक दैत्य ने महादेव शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने वरदान मांगने के लिए कहा, मौका देखते ही बाणासुर ने अमर होने का वरदान मांग लिया। शिव जी ने तथास्तु कहते हुए वचन दिया कि कुमारी कन्या के अलावा तुम्हारा कोई अंत नहीं कर सकेगा। वरदान प्राप्त होते ही बाणासुर निरंकुश तथा बड़ा उपद्रवी हो गया। उसके अत्याचारों से पूरे संसार में लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। ऐसी स्थिति से रक्षा के लिए देवतागण विष्णु भगवान के पास पहुंचे। विष्णु ने देवताओं के साथ मिलकर त्रिभुवन की सुरक्षा के लिए यज्ञ किया। उसी यज्ञ से एक अत्यंत सुंदर कन्या प्रकट हुई। यह कन्या महादेव शिव को प्राप्त करने के लिए दक्षिण तट पर तपस्या करने चली गई। उसकी आराधना से प्रसन्न होकर शिव ने पाणिग्रहण करना स्वीकार कर लिया। विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई और सब तैयारियां पूरी हो रही थीं। अब देवताओं को चिंता हुई कि इस दिव्य कन्या का विवाह हो गया तो फिर बाणासुर नहीं मारा जाएगा क्योंकि वरदान के अनुसार वह केवल कुमारी कन्या के द्वारा ही मारा जा सकता था। ऐसी स्थिति में महामुनि नारद ने सहयोग प्रदान किया। शिवजी विवाह के लिए दक्षिण सागर तट की ओर चल पड़े थे। वहां पहुंचने से पहले ही शुचींद्रम नामक स्थल पर नारद जी ने शिव जी से मुलाकात की। इस मुलाकात में काफी समय लगा और विलंब के कारण विवाह का मुहूर्त निकल गया। विवाह टल जाने के कारण साथ लाई गई सारी सामग्री अक्षत, रोली, तिल आदि सागर में विसर्जित कर दी गई। ऐसी मान्यता है कि इन सामग्रियों के बिखर जाने से ही यहां पर सागर तट की बालुका राशि चावल के दाने की तरह काले और लाल रंग की हो गई है। कुमारीकन्या महादेव शिव को प्राप्त करने के लिए पुनः तपस्या में लीन हो गई। इधर, बाणासुर को उसके मनमोहक सौंदर्य की चर्चा सुनने को मिली। वह कुमारी देवी से विवाह की इच्छा लेकर वहां पहुंचा और प्रणय निवेदन करने लगा। उसके बार-बार ऐसा करने से देवी की तपस्या भंग हुई और कुपित होकर देवी ने उस अत्याचारी दैत्य का वध कर डाला। बाणासुर के वध से सबको राहत मिली और कुमारी कन्या देवी के रूप में पूजनीय बन गई। इस पावन तीर्थ पर आश्विन नवरात्रि के समय पूजा का विशाल उत्सव मनाया जाता है।

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