मस्जिद में मोदी

By: Sep 15th, 2017 12:02 am

चूंकि जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने अहमदाबाद की 444 साल पुरानी, ऐतिहासिक और विश्व प्रसिद्ध सिदी सैयद मस्जिद देखने की इच्छा प्रकट की थी, लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी को ‘मेहमान शासनाध्यक्ष’ के साथ जाना ही था। उन्होंने गाइड बनना भी चुना और आबे दंपति को मस्जिद के शिल्प और वास्तुकला की जानकारी दी। भारत में प्रधानमंत्री मोदी पहली बार किसी मस्जिद के भीतर गए। गुजरात के मुख्यमंत्री होने के दौरान मोदी ने इस्लामी टोपी पहनने से विनम्र इनकार कर दिया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने न तो रोजा-इफ्तार पार्टी का आयोजन किया  और न ही राष्ट्रपति द्वारा ऐसे आयोजन तक में गए। साफ था कि प्रधानमंत्री मोदी खुद को ‘मुस्लिमवादी’ दिखाने से परहेज करते रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि सिदी सैयद मस्जिद में जाकर मोदी और भाजपा अपनी वैचारिकता बदलने को तैयार हो गए हैं। इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी सऊदी अरब की प्राचीन और ऐतिहासिक मस्जिद में भी जा चुके हैं। कई कर्म और धर्म ऐसे भी होते हैं, जो प्रधानमंत्री के तौर पर निभाने जरूरी होते हैं। यदि विदेशी प्रधानमंत्री ने मेहमान के तौर पर कोई स्मारक या विश्व प्रसिद्ध सांस्कृतिक धरोहर देखने की इच्छा जताई है, तो क्या यह जवाब दिया जा सकता है कि नहीं जी, हम हिंदूवादी हैं, लिहाजा मस्जिद में नहीं जाते। ऐसा बिलकुल भी संभव नहीं है। बहरहाल कांग्रेस की ओर से दोगली प्रतिक्रिया सामने आई है। राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद ने इसे ‘इलेक्शन स्टंट’ करार दिया है, जबकि वरिष्ठ प्रवक्ता एवं कई मुस्लिम देशों में राजदूत रह चुके मीम अफजल ने प्रधानमंत्री मोदी के मस्जिद के भीतर जाने का सार्वजनिक स्वागत किया है। ‘गरीब नवाज फाउंडेशन’ के मौलाना अंसार रजा की त्वरित टिप्पणी थी कि आज उनका सीना 56 इंच का हो गया है। इन पंक्तियों के लेखक के कुछ मुस्लिम दोस्तों का मानना था कि प्रधानमंत्री मोदी सबसे ज्यादा धर्मनिरपेक्ष हैं। बहरहाल कुछ भी हो, 1573 में बनी मस्जिद के भीतर जाकर प्रधानमंत्री मोदी ने कोई अपराध नहीं किया। सैयद मस्जिद पीले पत्थरों से बनी है और पीले पत्थर की ही जालियां विश्व प्रसिद्ध हैं। यह मस्जिद पीले पत्थरों पर ही नक्काशी के लिए विख्यात है। इंडो-इस्लामिक वास्तुकला पर आधारित यह मस्जिद और इसके ‘जाली पेड़’ मुगल काल के शिल्प की याद ताजा कर गए। अंग्रेजों ने भारत में ब्रिटिश सत्ता के दौरान एक दफ्तर के तौर पर इसका इस्तेमाल किया था। प्रधानमंत्री मोदी जापानी समकक्ष और उनकी पत्नी के साथ मस्जिद में गए, तो उन्होंने भारत की प्राचीन सभ्यता-संस्कृति की चर्चा की होगी। प्राचीन विरासत की चर्चा की होगी। मस्जिद की खूबसूरत नक्काशी का भी जिक्र किया होगा। इस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के प्रवक्ता का भी धर्म निभाया है। इस भूमिका पर सवाल क्यों उठाए जाएं? इसे हिंदू-मुसलमान की संकीर्णताओं में बांट कर क्यों देखा जाए? जालीदार खिड़कियों के लिए मशहूर इस मस्जिद का निर्माण गुजरात सल्तनत के आखिरी सुल्तान शम्स-उद-दीन मुजफ्फर शाह तृतीय की सेना के एक जनरल अहमद शाह बिलाल झजर खान के अनुयायियों ने 1573 में कराया था। इसे आज तक भी ‘अधूरी मस्जिद’ मानते हैं। न जाने क्यों? बहरहाल भारत-जापान के प्रधानमंत्रियों के बीच मुख्य मुद्दा मस्जिद नहीं है। उसे विपक्षियों ने उछाला है या कुछ मुस्लिमवादी लोगों ने सवाल किए हैं। दोनों प्रधानमंत्रियों ने भारत की प्रथम बुलेट टे्रन का शिलान्यास किया। करीब 1.20 लाख करोड़ रुपए की यह योजना 2022 में पूरी होगी। आम आदमी के विकास की अवधारणा के मद्देनजर हम इसे विकास नहीं मानते, क्योंकि न तो आम आदमी को इसकी जरूरत है और न ही उसकी जेब के अनुकूल है। गुजरात के व्यापारी पहले से ही हवाई जहाज के जरिए मुंबई जाते रहे हैं। बुलेट टे्रन का किराया हवाई जहाज के बराबर ही होगा। फिर भी बुलेट टे्रन देश के लिए एक ‘संपदा’ तो होगी और बाद में देश के अन्य भागों में भी रूट खोले जाएंगे। महत्त्वपूर्ण भारत-जापान की दोस्ती भी है। मौजूदा सरकार के तीन साला कार्यकाल के दौरान मोदी और शिंजो 11 बार मिल चुके हैं। दोस्ती सामरिक और कूटनीतिक दोनों स्तरों पर है। भारत की तुलना में जापान अधिक विकसित देश है और चीन के मुकाबले वह हमारी ज्यादा मदद कर सकता है। अमरीका भी चीन के कारण ही भारत को तवज्जो दे रहा है। ये शीर्ष मुलाकातें और द्विपक्षीय संवाद कोई निजी दोस्ती के तहत नहीं, बल्कि राष्ट्रीय हैं। विरोधी इस आयाम को भी समझें। जहां तक गुजरात विधानसभा चुनाव का सवाल है, मोदी और भाजपा को उसके मद्देनजर बुलेट टे्रन का शिलान्यास जरूरी नहीं है। भाजपा गुजरात को एक बार फिर जीत रही है, ऐसे पुख्ता आसार दिख रहे हैं।


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