मां हिडिंबा के बिना नहीं होता दशहरे का आगाज

By: Sep 28th, 2017 12:05 am

भुंतर —  अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा की खूबसूरती और आकर्षण को संजोए रखने में राजपरिवार की दादी कही जाने वाली देवी हिडिंबा ने साढ़े तीन सौ सालों से अहम भूमिका निभा रही हैं। लिहाजा, जब तक देवी हिडिंबा कुल्लू में दशहरा के लिए न पहुंचे, देवोत्सव का आगाज नहीं किया जा सकता। देवी हिडिंबा कुल्लू दशहरा की शान को बरकरार रखते स्वयं ही उत्सव शान बन गई हैं।  30 सितंबर से आरंभ होने वाले कुल्लू दशहरा उत्सव के लिए देवी हिंडिबा दरबार में तैयारियां जोरों पर हैं। भगवान रघुनाथ के कुल्लू आगमन के बाद ढालपुर में देवभूमि के सैकड़ों देवताओं ने जश्न स्वरूप जो देवोत्सव मनाया था तो कई रस्में उस दौरान आरंभ हुई थीं। इन रस्मों में देवी-देवताओं के अलावा राजपरिवार से होने वाले देव मिलन की रस्म सबसे अहम मानी जाती है। देवी हिडिंबा दशहरा में होने वाली लंका दहन की प्रक्रिया से पहले राजपरिवार को आशीर्वाद देती हैं। राजपरिवार लंकादहन के लिए माता हिडिंबा की परमिशन के बाद ही निकलता है। इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार की रुकावट न आए इसके लिए माता को खुश करने के लिए अष्टांग बलि देने की प्रथा भी है। कहते हैं कि कुल्लू की स्थापना राजा बृह्ममुनिपाद ने की थी जो पांडवों के वंशज थे और हरिद्वार से आए थे। वह एक कुम्हार के पास कार्य करते थे और एक बार किसी मेले में कुम्हार के घड़े लेकर जा रहे थे तो रास्ते में एक बुढि़या मिली, जिसने बृह्ममुनिपाद से घड़ों के साथ बैठ कर मेला दिखाने का आग्रह किया। उसने कहा आप तो मेरी दादी जैसी हो, जब वह मेले से वापस जा रहे तो बुढि़या ने परिचय दिया और कहा कि वह भी पांडवों के वंश से है और कहा कि एक दिन वह कुल्लू का राजा बनेगा और उनके वंशज भी तब तक राजा बने रहेंगे, जब तक वे हिडिंबा की उपासना करेंगे। इसलिए कुलदेवी होने के नाते माता हिडिंबा का दशहरा में पहुंचने पर राजपरिवार विशेष स्वागत करता है। दशहरे के दिन राजपरिवार के सदस्य माता को जिला मुख्यालय की कुछ दूरी पर स्वागत के लिए पहुंचते हैं और आदरपूर्वक माता को लाया जाता है। उत्सव के दौरान भी माता का विशेष शिविर सजता है। अस्थायी शिविर में विशेष भंडारे भी इस दौरान लगते हैं। भगवान रघुनाथ के प्रथम सेवक और छड़ीबदार महेश्वर सिंह की मानें तो कुल्लू दशहरा की परंपराओं को जीवित रखने में देवी-देवताओं ने अहम भूमिका निभाई है।


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