समझौते और दरार के बीच

By: Sep 12th, 2017 12:02 am

समझौते और दरार के बीच हिमाचल कांग्रेस की चुनावी रणनीति क्या है, इसे वर्तमान प्रदेश प्रभारी सुशील कुमार शिंदे के बूते समझा नहीं जा सकता। दुर्भाग्यवश शिंदे केवल शक्ति प्रदर्शन के बीच एक ऐसे फ्रेम की तरह हैं, जो अनेक दीवारों पर चस्पां होना चाहते हैं। अब तक का घटनाक्रम एक कमजोर व अस्थिर प्रभारी के रूप में शिंदे का दारोमदार इसलिए भी देख रहा है, क्योंकि वह न संतुलन कायम कर सके और न ही सद्भावना पैदा कर पाए। ऐसे में कांग्रेस को अगर भाजपा पर कोई जवाबी हमला करना है, तो उसकी शुरुआत कब होगी। आश्चर्य यह कि प्रभारी केवल वीरभद्र बनाम सुक्खू की सुलह-सफाई के ऊपर कोई भी बयान नहीं दे पाए, जबकि भाजपा की आंतरिक कमजोरियां उसे सता रही हैं। दूसरी ओर कांग्रेस कब अपनी सरकार की उपलब्धियों के इश्तहार हाथ में उठाएगी और यह पूछना शुरू करेगी कि केंद्र सरकार से प्रदेश के आर्थिक अधिकार क्यों रोके और किसकी वजह से यह हुआ। एम्स को लेकर दो सांसदों के बीच चला वाद-विवाद अगर भाजपा को कमजोर नहीं कर रहा, तो कांग्रेस ऐसी परिस्थितियों  पर खामोश क्यों बैठी है। स्मार्ट सिटी, लेह रेलमार्ग व केंद्रीय विश्वविद्यालय  जैसी परियोजनाओं के शिलान्यास नहीं कर पाई मोदी सरकार से सवाल पूछने की वजह भी शिंदे के अभियान का हिस्सा नहीं, तो वह किसकी मांद में बैठकर शिकार करना चाह रहे हैं। भाजपा की दुखती रग बना कांगड़ा, कांग्रेस की सबसे मजबूत इकाई तभी बनेगा यदि पार्टी प्रभारी, व्यावहारिक राजनीति को स्वीकार करें। कांग्रेस को सबसे अधिक विधानसभाई सीटें देने वाला यह जिला भाजपा के लिए कमजोर इकाई इसलिए क्योंकि इसी रणक्षेत्र में पार्टी को उम्मीदवारों की पहचान करना सबसे कठिन है। दूसरी ओर कांग्रेस के मौजूदा उम्मीदवारों की काबिलीयत पर आम सहमति है, बशर्ते पार्टी शाहपुर विधानसभा में अनुशासनहीनता और इतिहास से सबक ले। भाजपा के लिए कुल्लू, बिलासपुर, हमीरपुर व मंडी के कुछ हलकों में रेखांकित विरोध का रणनीतिक लाभ कांग्रेस ले सकती है, लेकिन शिंदे तो फिलहाल अपने सामने लड़ते-भिड़ते पार्टी के झुंड में खुद को साबित करने में लगे हैं। ऐसे में हिमाचल कांग्रेस की हकीकत को वीरभद्र से जितना अलग करके देखेंगे, उतने ही छोर नजर आएंगे। अगर मसला वीरभद्र सिंह को अलग -थलग करना है या नया नेतृत्व सामने लाना है, तो भी कांग्रेस को सीधे शब्दों का इस्तेमाल करना होगा। सुक्खू व वीरभद्र सिंह के वर्तमान आचरण में संतुलन लाने की तमाम शर्तों के बीच चुनाव का पोस्टर तो वर्तमान सरकार की उपलब्धियों से ही बनेगा। क्या इस वक्त की परख में शिंदे को केवल अपना ही मंचन करना है या प्रदेश भ्रमण से पार्टी आक्रोश की राख बटोरनी है। जो भी हो हिमाचल में कांग्रेस के कुनबे को बटोरने की कोशिश में शिंदे यह भूल चुके हैं कि उन्हें पार्टी को भाजपा के खिलाफ खड़ा करना है और इसके लिए संदेश व सबक एक साथ प्रस्तुत करना होगा। भाजपा प्रभारी मंगल पांडे के पास भी नसीहत देने की वजह कम नहीं, लेकिन वहां पार्टी की रणनीति स्पष्ट है। युवा नेताओं की कतार में संभावना देख रही भाजपा के सामने भी बड़े नेताओं की आकृति का मसला है। कांग्रेस से कहीं अधिक दिग्गजों के समीकरण जगत प्रकाश नड्डा, प्रेम कुमार धूमल और शांता कुमार सरीखे नेताओं के वजूद को तौल रहे हैं। इनमें से किसी भी नेता के महत्त्व को कमजोर करके भाजपा अपनी उम्मीदों को परवान नहीं चढ़ा सकती, जबकि कांग्रेस को जीत के लिए वीरभद्र और सरकार की छवि को आगे रखना पड़ेगा। कांग्रेस को वीरभद्र बनाम सुक्खू मुद्दा बनाने के बजाय विकास को सामने लाना होगा, ताकि भाजपा अपना मॉडल व प्रतिज्ञा सामने लाए। आंकड़ों के हिसाब से कांग्रेस को नाक ऊंचा करने का मौका अगर मिल सकता है, तो चुनाव की धीमी आंच में पिघल रही पार्टी को रणनीति पर तवज्जो देना होगा। धर्मशाला बस स्टैंड के शिलान्यास पर बाली-सुधीर मिलन सरीखे चित्र खींच कर, पार्टी कम से कम कांगड़ा में भाजपा की परेशानी बढ़ा सकती है।


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