सिद्धपीठ मां चंद्रबदनी

By: Sep 30th, 2017 12:08 am

Aasthaदेवभूमि उत्तराखंड में देवप्रयाग से 35 किलोमीटर दूर स्थित मां चंद्रबदनी मंदिर माता के 52 शक्तिपीठों में से एक है। मां भगवती का यह मंदिर श्रीनगर टिहरी मार्ग पर है। पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान शंकर का सती की मृत देह के प्रति मोह समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने सती की पार्थिव काया को सुदर्शन चक्र से कई भागों में बांट दिया था। सती का कटी भाग चंद्रकूट पर्वत पर गिरने से यहां पर भुवनेश्वरी सिद्धपीठ स्थापित हुई। कालांतर में भगवान शंकर इस स्थल पर आए। सती के विरह से व्याकुल भगवान शिव यहां सती का स्मरण कर सुध-बुध खो बैठे। इस पर महामाया सती यहां अपने चंद्र के समान शीतल मुख के साथ प्रकट हुई। इसको देखकर भगवान शंकर का शोक मोह दूर हो गया और प्रसन्नचित हो उठे। देव, गंर्धवों ने महाशक्ति के इस रूप का दर्शन कर स्तुति की। इसके बाद से यह तीर्थ चंद्रबदनी के नाम से विख्यात हुआ। यहां माता की मूर्ति के दर्शन कोई नहीं कर सकता है। पुजारी भी आंखों पर पट्टी बांधकर मां चंद्रबदनी को स्नान कराते हैं। आदि जगतगुरु शंकराचार्य ने यहां शक्तिपीठ की स्थापना की। मंदिर में देवी मां का श्रीयंत्र है। मंदिर के गर्भगृह पर एक शिला पर उत्कीर्ण इस श्रीयंत्र के ऊपर चांदी का बड़ा छतर है। इस सिद्धपीठ में आने वाले श्रद्धालुओं को मां कभी खाली हाथ नहीं जाने देती। स्कंदपुराण, देवी भागवत एवं महाभारत में इस सिद्धपीठ का वर्णन है। प्राचीन ग्रंथों में यहां का उल्लेख भुवनेश्वरी सिद्धपीठ नाम से है। भक्त यहां सिर्फ श्रीयंत्र के ही दर्शन करते हैं। शक्तिपीठ के गर्भगृह में काले पत्थर के श्रीयंत्र के दर्शन करने तथा पूजा में प्रयुक्त शंख का पानी पीने का बड़ा महत्त्व माना जाता है।  महाभारत की एक कथा के अनुसार चंद्रकूट पर्वत पर अश्वत्थामा को फेंका गया था। चिरंजीवी अश्वत्थामा अभी भी हिमालय में विचरते हैं यह माना जाता है। गर्भगृह में भूमि पर भुवनेश्वरी यंत्र स्थापित है। जबकि ऊपर की ओर स्थित यंत्र सदा ढका रहता है।


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