अचानक या सिर्फ नड्डा
जब हिमाचल के चुनाव परिणाम आएंगे तो सत्ता रंग के बजाय नेता का ढंग भी देखा जाएगा। चुनाव परिसीमा के भीतर और बाहर भाजपा की प्रचार सामग्री में दर्ज चेहरे या दर्जनों चेहरों का नूर बता रहा है कि करवटें कहीं न कहीं चिन्हित हो रही हैं। ऐसे में पार्टियों की जीत के बावजूद मुख्यमंत्री पद के हिसाब में हिमाचल का विजन सदा चित्रित हुआ है। आज भले ही देश में मोदी विजन की पताका पर चुनावी समीकरणों का मुकाबला हो रहा है, लेकिन हिमाचल ने स्व. वाईएस परमार के समय से ही अपनी इबारत से नेताओं के कद का हिसाब किया। ऐसे में मुख्यमंत्रियों के मौजूदा दौर के शांता-धूमल के अलावा वीरभद्र का जिक्र स्वाभाविक है, लेकिन भाजपा ने अपना कोण बदल कर नेताओं के नए अस्तित्व में अपनी खोज शुरू कर दी। हालांकि जिस हिफाजत से भाजपा ने जगत प्रकाश नड्डा के कद को प्रस्तुत किया, उससे राजनीतिक कयास बदले, लेकिन घूंघट पूरी तरह नहीं हटा। यहां सिर्फ नड्डा पर भाजपा दांव नहीं खेल रही, बल्कि कुछ नए चेहरे अचानक परिदृश्य में आकर समीकरण बनाने लगे हैं। जिस इंदु गोस्वामी के अचानक टिकट ने पालमपुर की सियासी हस्ती पलट दी, आज उसकी जीत तय करने के कारण बढ़ा दिए गए हैं। ऐसे में कांगड़ा की बेटी के मार्फत भाजपा, पूर्व में माइनस हुए जिला पर मेहरबान होने की छवि बना रही है। इंदु गोस्वामी क्या मात्र एक उम्मीदवार हैं या भविष्य की सुनहरी लकीर से आगे निकलने की कोई नई राजनीतिक जुगत। यह इसलिए भी क्योंकि शांता कुमार के राजनीतिक अभयारण्य से उनके प्रश्रय प्राप्त प्रवीण दरकिनार हुए, तो राष्ट्रीय आस्था की शरण से इंदु नामक चांद निकल आया। ऐसे में शांता कुमार के साथ-साथ प्रेम कुमार धूमल के शिखर पर छाई सियासी मंदी के बावजूद जगत प्रकाश नड्डा की कामकाजी तीव्रता का गुलाल अगर फैला है, तो यह सफर अचानक शुरू नहीं हुआ। चुनाव की परिपाटी में नड्डा की बिसात पर अगर कोई गेम प्लान नहीं, तो स्थिति कुछ और होती। यह मानना पड़ेगा कि भाजपा का सत्ता संघर्ष एक बड़े संदेश का गवाह और पार्टी की रणनीति का हिस्सा है। दूसरी ओर कांग्रेस का चरित्र और चित भले ही नेताओं में फंसा है, लेकिन सारी कमान का जादू एक छत्र हो गया। ऐसे में लड़ाई जिस फ्रेम में हो रही है, वहां वीरभद्र सिंह का चित्र चस्पां है। पार्टी के भीतर और सरकार के साथ जो अन्य नेता उड़ान पर थे, उनके कदम बंधे तो वीरभद्र सिंह ही सभी का विकल्प बन गए। यह असामान्य पक्ष है, जहां एक मुख्यमंत्री डंके की चोट पर फिर मुख्यमंत्री बनने को आतुर है और पूरी पार्टी शरण में है। देश में पिछले तमाम चुनावों में भाजपा बनाम कांग्रेस रही है, लेकिन यहां एक मुख्यमंत्री ही प्रधानमंत्री के सामने चुनौती बनने का अस्तित्व रखता है। भाजपा हिमाचल से चुनाव का मूड पूछ रही है और प्रचार के हर युद्ध में अव्वल है, फिर भी वीरभद्र सिंह का नाम ही कांग्रेस का प्रचार है। यह विकट प्रयोग है, लेकिन ऐसा आसरा है जो गुजरात मॉडल को चुनौती दे रहा है और केंद्र के साढ़े तीन साल का हिसाब पूछ रहा है। वीरभद्र चुनाव का सबसे बड़ा फैक्टर न होते, तो भाजपा की सामग्री इतनी अनुगूंज न करती। भाजपा का चेहरा प्रेम कुमार धूमल होते, तो कांग्रेस यूं खामोश न होती। दरअसल नेता ही मुद्दा हैं और इनके कारण ही मुद्दे हैं। वीरभद्र के खिलाफ भाजपा से कहीं अधिक प्रेम कुमार धूमल का प्रहार रहा है और जिसकी मचान पर पार्टी सत्ता का शिकार कर रही है। क्या यह संभव है कि धूमल को पर्दे में रखकर भाजपा का चुनावी प्रहार पहले से भी अधिक असरदार होगा। नड्डा आज की तारीख में भाजपा की सबसे बड़ी उद्घोषणा हैं, तो क्या पार्टी जीत का जिम्मेदार चेहरा भी बनेंगे, इस रणनीति की रणभेरी फिलहाल खामोश है।
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