चुनावी पराली का प्रदूषण

By: Oct 12th, 2017 12:02 am

हिमाचल में चुनाव की सरकती तारीख ने नैतिक-अनैतिक के बीच अंतर करना छोड़ दिया है और ऐसा प्रतीत होने लगा है कि सारी भुजाएं इस प्रदेश की हकदार हैं। मंत्रिमंडल की बैठकों में निरूपित उद्देश्यों का सौहार्द कितना भी नरम हो, लेकिन इस सद्भावना का यथार्थ केवल चुनावी घंटियां ही बजा रहा है। इसमें आश्चर्य नहीं कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री एम्स के मॉडल की अवधारणा में चुनाव के सबसे बड़े हथियार को देख रहे हैं या अंतिम पहर के फैसलों में सरकार अपने चुनावी बिग पहन रही है। बेशक अद्भुत मुकाबले में औचित्य भी अनहोनी की तरह पक्ष-विपक्ष को देख रहा है और चुनावी फेहरिस्त में सजी राजनीतिक दावतों पर यकीन नहीं हो रहा है। ऐसे में सुशासन भी अब लफड़े करने लगा है और विश्वास न हो, तो विचारों की आवारगी में टूटती मर्यादा की छलनी हालत देख लें। कांगड़ा में एक एसपी इसलिए चर्चित रहे कि उन्होंने नशाखोरों की पुडि़या लूट ली और दोपहिया वाहन चालकों के सिर पर हेल्मेट फिट कर दिया, लेकिन चुनाव पूर्व की रिहर्सल में ऐसे अधिकारी भी फेंट दिए गए, लिहाजा अब छूट इतनी कि सड़क का शोर पुलिस की नींद नहीं उखाड़ पाता। सड़कों पर नो पार्किंग जोन को कुचल कर चुनावी यात्राएं आगे बढ़ रही हैं, तो साहसी अधिकारी भी दुबक गए। इस बदलते युग की राजनीति को समझना इतना भी मुश्किल नहीं कि किसी एक पक्ष को निर्मोही चुन लें। सियासत और इनसान के घाघ रिश्तों में चुनाव ने आसमानी सितारे भी जमीन पर रख दिए। इसलिए पहले केंद्र सरकार ने पेट्रोल को कड़छी में भर कर देखा और अब हिमाचल सरकार ने इसे चख कर देखा, तो इसकी दर इतनी उतर गई कि हम अपने वाहन को दिवाली की खुशहाली तक ले जाएं। चुनावी दिवाली में पटाखों का फूटना उतना ही असरदार है, जितना खेत की ताजी फसल के उतरने पर ठूंठ को माचिस लगाने पर होता है। चुनावी पराली के प्रदूषण में आम मतदाता भी खुद को बदलता है, क्योंकि उसके जीवन के दोराहे पर नेता भी यतीम लगता है। यकीन न हो, तो बढ़ती रौनक के शराबी माहौल में मुफ्त के नशे में धुत्त होते विचारों को सुनें। इसलिए मतदाता के साथ हर चुनाव में गठबंधन होता है और वादों की खेती में मुस्कान परखते मतदाता भी इसके आदी हो गए कि अब चुनावी वसंत में चारित्रिक पतझड़ हो जाती है। चुनावी पराली के धुएं में किसी को मालूम नहीं पड़ता कि कितने चुपके से किसी मतदाता ने अतिक्रमण कर लिया या बिना नगर नियोजन के मकान चिन गया। इसी पराली के जलने से महकता है चुनाव का सुरूर और रंग-बिरंगे माहौल की तितलियां भी सौदेबाजी करती हैं। क्या मंत्रिमंडल के इरादों की खुशबू, राजनीतिक खिचड़ी की हांडी से बेहतर पका पाएगी या जनता इतनी सौदेबाज हो गई कि चुनावी सांझ में भी व्यापार करने लगी है। वे चार मंत्री भाग्यशाली थे, जिन्होंने मंत्रिमंडल के तराने सुनाए या बाकी सात मंत्री ज्यादा यथार्थवादी निकले, जिन्होंने गैरहाजिरी में अपने हलकों पर हल चलाए। चुनावी भूमि की पड़ताल में देवभूमि का अक्स अगर सरकार की नीयत और नियम के बीच तय होना है, तो धार्मिक संगठनों के दायरे की अतिरिक्त जमीन भी नए सौदे करेगी। वाह क्या गजब का नजारा है कि प्रदेश की धार्मिक हवा में पहली बार सरकार के फैसले से धार्मिक संस्थाएं भी अतिरिक्त जमीन की पैमाइश में श्रद्धा वश कांग्रेसी हुकूमत को साधुवाद देंगी। सरकार की भाग्यरेखा पर तोमर सरीखे व्यक्ति को सरकार की अंतिम डाल पर अगर एक अन्य पद मिल रहा है, तो सामने जलती चुनावी पराली का क्या कसूर। उसे तो लोकतंत्र की पतझड़ डराती है और सरकार की हरियाली भी।


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