चुनावी पांव की कील

By: Oct 28th, 2017 12:02 am

जीत-हार की दीवारों पर लगे पोस्टर बता रहे हैं कि हिमाचल में बागियों की फेहरिस्त मिटाने में भाजपा-कांग्रेस को खासी सफलता नहीं मिली है। पार्टियों के भीतर आक्रोश का बारूद बिखरा है, तो जीत के अनुमान भी बिखरेंगे। वास्तव में इस बार मतदाता से कहीं अधिक नेताओं की बारात निकली है और जहां सियासत केवल सत्ता के नारे लगा रही है। वैसे पिछले कुछ चुनावों से नेताओं के कद बढ़ाने की जुगत में पार्टियों के भीतर भी अपने-पराए का खेल जारी रहा है। आम हिमाचली भी आज तक किसी न किसी सरहद पर खड़ा होकर भावना-सद्भावना के बजाय, बगावती रहा और इस तरह सत्ता पाजेब की तरह बदलती रही। हिमाचल को पाने या समझने की गलती बड़ी राजनीतिक पार्टियां करती रही हैं और इस बार भाजपा ने जो फील्ड जमाई है, उस मैदान पर कांटों का सफर कम नहीं होता। यह दीगर है कि पार्टी ने कुछ चेहरों का गुस्सा शांत कर लिया, लेकिन प्रयोग के बैकुंठ में बैठी भाजपा के अपने कयास का विरोध पूरी तरह थमा नहीं है। ऐसे में भाजपा के राष्ट्रीय और राज्यीय नेतृत्व के बीच कुछ फासले रहे हैं, वरना दो बड़े नेता अपने सीमित होते दायरों की धूल नहीं फांक रहे होते। दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए भाजपा ने पायदान नीचे करके इम्तिहान लिया है, तो कांग्रेस के मुख्यमंत्री के पास पूरी सीढ़ी बचाने का दारोमदार समझा जा रहा है। यह दीगर है कि जिन नेताओं की औलाद समर में उतरी है, उनके लिए मशक्कत का दरिया कहीं रुका है। अचानक हिमाचली मतदाता भी यह भेद देख रहा है कि परिवारवाद के बीच सियासत की सौगंध कितनी स्वार्थी है। नामांकन की चंद तालियों के बीच जहां अपनों की चोट लग रही है, वहां हलाल होने का खतरा बढ़ जाता है। क्या यह चुनाव कुछ नेताओं का वजूद हल्का करेगा या हर हलके की इबारत में हिमाचली ख्वाहिश का रंग दिखाई देगा, यही तो चुनावी कील की चुभन है। यहां कुछ विधानसभा क्षेत्र अपने गौरव को प्रतिष्ठित करने की परिपाटी में चुनाव के हर मुहाने का मुकाबला करेंगे, तो अन्य कई आसमान को बदलने की मंशा पाल रहे हैं। जो मतदाता भाजपा के नेतृत्व में प्रेम कुमार धूमल के अक्स को बड़ा करके देख रहे हैं, उनके लिए सुजानपुर ही हस्तिनापुर बन रहा है। यहां हरोली की हरियाली में मुकेश अग्निहोत्री की सौगात का गौरव है, तो धर्मशाला के मुसाफिर सुधीर की यात्रा में विधानसभा के उठते स्तर को बरकरार रखने की परीक्षा में उतर रहे हैं। यह हिमाचल की सैन्य पृष्ठभूमि का कमाल है कि चरित्र भी चुनावों की समीक्षा करता है। माटी के प्रति सरोकार और जज्बात की हर बुनियाद पर जनता बागियों की समीक्षा करेगी। शांता कुमार के कांगड़ा, धूमल के हमीरपुर, वीरभद्र सिंह के शिमला और सुखराम-कौल सिंह के मंडी की राहों पर कांटों की सेज पर, सवाल न मिशन रिपीट और न ही फिफ्टी प्लस का, बल्कि गैरों का सितम-अपनों का जुल्म बनता जा रहा है। चेले अपने ही गुरुओं से आगे निकलने की दौड़ में और पार्टियां समुद्र बनकर खारी हो गईं। यहां विष के प्यालों में डूबे सांपनाथ और जहर की खोज में नागनाथ घूम रहे हैं। चुनाव के पांव हिमाचल की मिट्टी में हर ओर कीलें देख रहे हैं। समुदाय अपनी पहचान की किश्तियों पर, जातियां अपनी सूबेदारी की फौज में और क्षेत्रीय ताकतें अपने गणित के योग में चुनाव में खुद को देख रही हैं। आश्चर्य यह कि हिमाचल का बुद्धिजीवी-मध्यम वर्ग भी, अपने घर की रौनक में चुनाव के बदलते शामियाने देखते हैं। यहां विकास तो एक बहाना, हर बार किसी न किसी को रुलाना है। इसीलिए टिकट आबंटन के पहले और बाद में कुछ नेता रोए। ऐसे में जब चुनाव के आंसू निकलते हैं, तो देश समझता है हिमाचल भोला है। दरअसल हिमाचल भोला है ही नहीं और यह मानकर केंद्रीय नेता और हर पार्टी अपने शिखर पर गलती करती है। इस बार अपने जुनून और कर्मठ इरादों के बावजूद भाजपा के शीर्ष ने हिमाचल को समझने में गलती की होगी, तो आंकड़ों के अस्तबल भी विद्रोह करेंगे। कांग्रेस की राष्ट्रीय जटिलता हिमाचल से भिन्न निकलती है, तो चुनाव की पलकें मंजर को बदलने के लिए उठेंगी, लेकिन अभी कांटे की टक्कर पर यकीन करके ही मेहनत करनी पड़ेगी।


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