मिट्टी होती किसान की मेहनत

By: Oct 27th, 2017 12:02 am

बचन सिंह घटवाल

लेखक, मस्सल, कांगड़ा से हैं

प्रकृति ने हिमाचल के भौगोलिक परिदृश्य को सुंदर पर्वतों, नदियों, झरनों व वनस्पतियों के प्रचुर भंडार से सुसज्जित किया है। प्रदेश का यह भंडार हमारे जीवन में समृद्धि और संपन्नता का आधार रहा है। हिमाचल का कुल क्षेत्रफल 55,673 वर्ग किलोमीटर है। जीविकोपाजर्न के लिए यहां के लोग कृषि और बागबानी को अपना मुख्य जरिया बनाए हुए हैं। हैरानी नहीं होनी चाहिए कि हिमाचल की कुल जनसंख्या के लगभग 93 प्रतिशत लोग कृषि कार्यों से जुड़े हुए हैं। इससे न केवल प्रदेश की खाद्य जरूरतें पूरी हो रही हैं, बल्कि निर्यात के मार्फत प्रदेश की आर्थिकी को भी संबल मिलता रहा है। हिमाचली किसान कृषि योग्य जमीन को धान, गेहूं, मक्का की फसलों के लिए तो प्रयुक्त करते ही हैं, इसके अतिरिक्त फलों, मौसमी सब्जियों के उत्पादन के जरिए भी अपनी आर्थिकी को मजबूत बना रहे हैं। किसान कठिन श्रम करके प्रदेश की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए प्रयासरत है। बेशक आधुनिकता के प्रभाव में परिवारों के विघटन से खेत कई हिस्सों में बंट गए, लेकिन मेहनतकश किसान कृषि के कमतर टुकड़े पर मेहनत का पसीना बहाने से नहीं चूकता। इसकी एक बड़ी वजह यह कि परिवार की आर्थिकी को मजबूत करने का जरिया खेतीबाड़ी ही नजर आता है। यही कारण है कि आज कृषि प्रदेश की कुल जनसंख्या के 71 प्रतिशत लोगों को रोजगार प्रदान करने का जरिया बनी हुई है। हालांकि प्रदेश की खुशहाली का यह मार्ग इतना सरल भी नहीं है।

किसान अगर अपनी मेहनत के सदके पारिवारिक एवं प्रादेशिक समृद्धि में योगदान कर रहा है, तो इस राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। वर्तमान संदर्भ में किसानों की परेशानी का मुख्य कारण मिट्टी में मिलती मेहनत को माना जा सकता है। कहीं प्राकृतिक प्रकोप की वजह से उपज खेत में मिल जाती है, तो कहीं हरे-भरे खेत आवारा पशुओं की भेंट चढ़ जाते हैं। वनों से सटे खेत जंगली जानवरों के भरण-पोषण का साधन बनते जा रहे हैं। कृषि पर बहाया गया मेहनत रूपी पसीना, पशुओं द्वारा पल भर में पानी बन बह जाता है। इस उजाड़ दृश्य को देखकर किसान मन मसोस करने तक ही सीमित रह जाता है। उसके बाद बेचारगी का आलम यह कि विकल्प स्वरूप उन्हें इनसे छुटकारा पाने का कोई स्थायी हल नजर नहीं आ रहा। इसमें संदेह नहीं कि किसान फसल की रक्षा के लिए हर समय सतर्क रहते हैं। वे आवारा पशुओं पर नियंत्रण के लिए तरह-तरह के जुगाड़ लगाते हैं। लावारिस पशुओं को नियंत्रण में करने के लिए जहां पंचायतों में अस्थायी बाड़े बनाए गए हैं, वहीं किसान लावारिस पशुओं को उनमें इकट्ठा कर उनके रात के उजाड़ न करने का हल निकालते हैं। दिन में तो उन्हें छोड़ना ही पड़ता है। कहीं-कहीं किसान अपने स्तर पर भी रात के अंधियारे में चौकसी बरतते हैं, परंतु दुर्भाग्यवश एक पल की चूक उनके खेतों पर भारी पड़ जाती है। दूसरी तरफ बंदरों के उत्पात व उजाड़ का भी कोई ठिकाना नहीं है। अब तो इनकी आबादी और हौसले इतने बढ़ गए हैं कि अकेला व्यक्ति खेत की रखवाली भी नहीं कर सकता। बंदरों के खूंखार होते तेवरों से अब तक न जाने कितने ही लोग जख्मी हो चुके हैं।

ऐसे में हर कोई इनसे दूर ही रहना चाहता है। नील गायें खेतों में लगी कांटेदार तारों को भी लांघकर सफाया कर जाती हैं। इनसे अगर कुछ बचता है तो जंगली सूअर खेती को तहस-नहस कर रही-सही कसर पूरी कर देते हैं। इस संदर्भ में ऐसा नहीं कि सरकारों द्वारा प्रयत्न नहीं किए जा रहे हैं। कांटेदार तारों से लेकर पशुओं को पशुशालाओं तक सीमित करने का उपक्रम किया गया। यह भी एक हकीकत है कि इनके परिणाम अब तक सराहना के काबिल नहीं हैं। इस विवशता और लाचारी के माहौल में किसान कृषि को त्यागने के लिए मजबूर हो चले हैं। आवारा पशुओं का जमावड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ने की प्रक्रिया ही दर्शाता है। खेती का नुकसान तो किसान उठा ही रहा है, इसके अतिरिक्त सड़कों, गलियों, मोहल्लों व मुख्य बाजारों में आवारा पशु यातायात को भी अव्यवस्थित कर रहे हैं। कहीं-कहीं इनकी वजह से वाहनों और जान-माल का नुकसान भी झेलना पड़ रहा है। असंख्य दुर्घटनाओं का कारण आज लावारिस पशुओं का जमावड़ा ही बन रहा है। बात यहां तक ही सीमित नहीं रही है। राहगीर, आम जनमानस क्रुद्ध पशुओं की टक्कर का शिकार होने लगे हैं।

पहले कुछ बच्चे मिलजुल कर स्कूल चले जाते थे, लेकिन अब हमेशा डर यही रहता है कि कहीं कोई बंदर या लावारिस पशु बच्चों को अपना शिकार न बना ले। शहरों में कूड़ेदानों के पास घूमते आवारा पशु अधिपत्य जमाए रहते हैं। कूड़े को कूड़ादान में डालते समय गृहिणियां अगर सावधानी न बरतें, लावारिस पशु उन्हें भी न बख्शें। इस भय के कारण वे कूड़ा यथास्थान पर गिराने से भी वंचित रह जाती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि आज के संदर्भ में पशुओं की क्रूरता मानव और कृषि पर भारी पड़ रही है। इसके उदाहरण हमें रोजाना देखने को मिल जाते हैं। किसानों की कृषि से विमुख होने का कारण पशुओं का उत्पात बनता जा रहा है। ऐसे में इस विषय पर इसके प्रकोप से छुटकारा पाने के हल पर विचार करना नितांत आवश्यक है। अगर यूं ही टालमटोल और भविष्य पर छोड़ने की कवायद चलती रही, तो किसान खेतों को यूं ही बिना बुआई के छोड़ने पर मजबूर होते रहेंगे, जिससे हमारी कृषि पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। इससे रोजगार और आर्थिकी दोनों ही नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे।


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