लातों के ‘हुर्रियत’ मानेंगे बात !

By: Oct 26th, 2017 12:02 am

कश्मीर शांत होना चाहिए, यह देश के औसत नागरिक की दिली तमन्ना है, लेकिन ‘जन्नत’ में ‘जहन्नुम’ का समावेश कैसे और कब समाप्त होगा, उसके मद्देनजर उलझनें भी हैं और ढेरों सवाल भी हैं। कौन ईमानदारी से कोशिश कर रहा है या कौन सियासत खेल रहा है अथवा कौन सोच के स्तर पर पाकपरस्त है, मुद्दत से ये सवाल अनसुलझे रहे हैं। यदि अब साढ़े तीन साल बाद मोदी सरकार ने कश्मीर में गोली और गाली का जवाब संवाद से देने की शुरुआत की है, तो बेवकूफाना और पूर्वाग्रही सवाल किए जा रहे हैं कि पहले ऐसा क्यों नहीं किया गया? कश्मीर का इन सालों में बेड़ागर्क कर दिया? इत्यादि। दरअसल इस शुरुआत में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ‘जम्हूरियत, इनसानियत, कश्मीरियत’ वाले आह्वान के भाव हैं। अटल जी की शुरुआत को अलगाववादी और अन्य तबके आज भी याद करते हैं। कश्मीर में संवाद की ऐसी कोशिशें पहले भी की जा चुकी हैं। जम्मू-कश्मीर के मौजूदा राज्यपाल एनएन वोहरा भी कभी वार्ताकार बन कर कश्मीर गए थे। यूपीए सरकार के दौरान दिलीप पडगांवकर, राधाकुमार और एमएम अंसारी की टीम ने भी कश्मीर में करीब दो सालों तक चप्पे-चप्पे पर खाक छानी थी, लेकिन उन रपटों का क्या हुआ? कश्मीर के हालात जरा सा सामान्य क्यों नहीं हो पाए? इसके मायने ये नहीं हैं कि एक और सार्थक कोशिश न की जाए। वैसे मोदी सरकार गृह मंत्रालय में धूल चाट रहीं उन रपटों को संसद के पटल पर रखे और विमर्श करे, तो शायद कुछ बेहतर सुझाव सामने आएं। वैसे आज कश्मीर के हालात कुछ बेहतर हैं, लेकिन उन्हें अमन-चैन का दर्जा नहीं दिया जा सकता। बहरहाल सीमापार से घुसपैठ बेहद कम हो गई है। सेना, सुरक्षा बलों और पुलिस के साझा आपरेशन के जरिए करीब 170 आतंकियों को ढेर किया जा चुका है। आतंकी साजिशें और सक्रियताएं कम होने के बावजूद कश्मीर में अब भी 250 से कुछ ज्यादा आतंकियों की मौजूदगी मानी जाती है। सबसे गौरतलब सवाल यह है कि पाकिस्तान की मध्यस्थता का मुद्दा उठाने वाले, आतंकी फंड, हवाला कारोबार में लिप्त, पाकिस्तान में हाफिज सईद सरीखे आतंकियों से मुलाकात करने वाले अलगाववादियों के खिलाफ जो जांच जारी है, क्या उसे मुल्तवी कर दिया जाएगा? क्या अलगाववादी अब भारत के संविधान के तहत बातचीत को तैयार होंगे और आजादी का पाकपरस्त जुमला छोड़ देंगे? क्या अलगाववादी नेताओं के बदलते रुख पर भरोसा किया जाए, क्योंकि माना जा रहा है कि वे राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की जांच से बचने को इस बातचीत के लिए तैयार हो सकते हैं। उन्हें पूरी तरह एहसास है कि यदि यह जांच निष्कर्ष तक पहुंच पाई, तो उनका जेल जाना तय है। वैसे संवाद का दायरा वार्ताकार एवं पूर्व आईबी निदेशक दिनेश्वर शर्मा के हवाले छोड़ दिया गया है कि वह किस पक्ष से बात करें और किससे न करें, लेकिन हुर्रियत से बात के पक्ष में भाजपा नहीं है। उसका तर्क है कि लातों के भूत बातों से नहीं माना करते। बहरहाल संवाद की शुरुआत की जा रही है, तो उन सभी पक्षों और दावेदारों से बात की जानी चाहिए, जो कश्मीरी हैं। इसमें पाकिस्तान को घुसाने की कोई जरूरत नहीं है। बेशक फारूक अब्दुल्ला कुछ भी बयान देते रहें। सभी जानते हैं कि वह कितने बड़े ‘रंगे सियार’ हैं! बहरहाल संवाद की प्रक्रिया से राज्य में सत्तारूढ़ पक्ष, राजनीतिक चेहरों, सांसदों, कश्मीरी मंत्रियों को कुछ राहत मिलेगी, क्योंकि अब वे जनता को आश्वस्त कर सकते हैं कि उनके ही आग्रह पर यह बातचीत शुरू हो रही है। सबसे गंभीर राजनीतिक संकट तो महबूबा मुफ्ती और उनकी पार्टी पीडीपी के सामने है। दक्षिण कश्मीर उनका गढ़ रहा है और सबसे ज्यादा उथल-पुथल वहीं है। एक बार बातचीत शुरू होती है, तो देखेंगे कि उसके बाद लोगों का मूड कैसा बनता है? पत्थरबाजों की सोच और हरकतें बदलती हैं या नहीं? कुल मिलाकर यह राजनीतिक कोशिश है। कश्मीर को कुछ अनुदान देकर शांत नहीं किया जा सकता। प्रत्येक स्तर पर विश्वास बहाली की दरकार है। कश्मीरी अपने राज्य से बाहर जाएं, तो उन्हें खाने वाली निगाह से न देखा जाए। वे भी इसी देश के नागरिक हैं। उनका हर स्तर पर समावेश होना चाहिए। कश्मीर में ही संसाधन पैदा किए जाने चाहिएं। कश्मीरी पंडितों की सम्मानजनक वापसी होनी चाहिए, निर्णय उन पर छोड़ दिया जाए। ऐसे चौतरफा प्रयास होंगे, तो संवाद सफल साबित होगा और उसका पूरा श्रेय मोदी सरकार को जाएगा। यदि मनमोहन सरकार के दौरान गोलमेज सम्मेलन की तरह यह बातचीत भी साबित होती है, तो वार्ताकार के कश्मीर जाने का कोई औचित्य नहीं है।


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