हिमाचली मुद्दे का गुजराती होना
अंततः चुनाव आयोग का बिगुल गुजरात में भी बज गया और अब वहां दो चरणों में नौ व चौदह दिसंबर के दिन मतदान होगा। यानी हिमाचल का चुनावी मंजर गुजरात की घंटी बजने तक इंतजार करेगा और इस तरह नौ नवंबर की पारी अठारह दिसंबर तक ताले में बंद रहेगी। हिमाचली वजूद पर बर्फ सा छिड़काव करते चुनाव आयोग ने तीन विधानसभा क्षेत्रों के नाम पर परंपरा को नाजुक बनाया, हालांकि पर्वत की भौगोलिक परिस्थिति को देखते हुए यहां भी दो चरण संभव थे। जो चुनाव हमें सर्द होते देखता है, उसे यह भी समझना होगा कि हिमाचल के कबायली इलाकों के लिए अलग से संसदीय क्षेत्र कितना आवश्यक है। राष्ट्रीय बहस के जिस कोने में हिमाचल को देखा जाता है, उसे महसूस करते चुनाव आयोग को भी अपनी इच्छाशक्ति का खुलासा करना पड़ा। विवाद गुजरात चुनाव की खामोशी और इसके समानांतर हिमाचल की बेडि़यों में देखा जाता रहा है। ऐसे में चुनावी दबाव की कोशिकाएं स्पष्ट हुईं, तो राजनीति को यह पूछने की हिम्मत हुई कि अकेला हिमाचल ही क्यों इतनी लंबी व अनावश्यक आचार संहिता के दायरे में आया, जबकि एक लंबे इंतजार के बाद गुजराती परिणाम तक, पर्वतीय प्रदेश चुनाव आयोग के आगे हाथ जोड़े खड़ा रहेगा। महत्त्वपूर्ण हिमाचल के तीन विधानसभा क्षेत्रों का भाग्य तय करना था, तो दो चरणों के साथ भी चुनावी महफिल सज सकती थी यानी एक चरण काफी पहले और दूसरा गुजरात के साथ। लोकतांत्रिक दस्तूर की वर्तमान परिभाषा में गुजरात चुनाव अब हिमाचल में बड़ा मुद्दा बन रहा है। साक्षरता दर में गुजरात से कहीं ऊपर बैठी हिमाचली जनता को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य की बहस में निष्कर्ष मिलता है, अतः सागर की हवाएं पर्वत से जब मुलाकात करेंगी तो टकराव के अक्स बदलेंगे। यानी गुजरात बनाम हिमाचल की छवि में अगर चुनावी जंग हुई, तो मॉडल बनाम मॉडल भी देखा जाएगा। इसमें दो राय नहीं और यह प्रमाणित दस्तावेज है कि हिमाचल ने अपने राष्ट्रीय मूल्यांकन के संदर्भों को गुजरात से कहीं बेहतर बनाया है। इसका एक छोटा सा चित्रण राहुल की मंडी रैली में हुआ, तो हिमाचली अस्मिता का नारा बुलंद होकर सामने आया। गुजरात में चुनावी घोषणा से पूर्व अगर प्रधानमंत्री राज्य के गौरव से खुद को जोड़ते रहे हैं, तो यहां भी हिमाचली फर्स्ट की भावना को समझना होगा। हिमाचल में तो नीतियां भी इसी दिशा में बनीं और धारा 118 की व्याख्या से संबोधन हुए। इसी तरह किसी भी प्रकार के निजी निवेश में सत्तर फीसदी हिमाचली रोजगार पुष्ट होता है, तो यह नियम किसी अन्य राज्य में नहीं बन सका। पर्वतीय राज्यों में हिमाचली श्रेष्ठता अनुकरणीय रही, तो यहां की तमाम सरकारों को इस प्रकार की जनापेक्षाओं से रू-ब-रू होना पड़ता है। देश के प्रथम पांच राज्यों में तसदीक हिमाचल अगर मोबाइल इस्तेमाल में बड़े प्रदेशों को पछाड़ चुका है, तो उपभोक्तावाद की इस दहलीज के भीतर ज्ञान क्षुधा क्या होगी। इसीलिए इस बार चुनावी प्रचार के हर रंग में हिमाचली सूचनाओं का विस्तार हो रहा है। एक साथ चुनाव की परिधि में नत्थी गुजरात-हिमाचल के बीच तकनीकी भेद बता कर भी आयोग उन शंकाओं को नहीं मिटा पाया, जो मौसम की तरह अप्रत्याशित नहीं बल्कि स्थायी बन रही हैं। जिन नेताओं ने दिवाली के दीयों में भी चुनाव की पूजा की है, उन्हें मालूम है कि हिमाचल की कसरत में गुजरात से कहीं कम अवसर हैं। पांच साल पहले हिमाचल को गुजरात बनने की नसीहत दी जाती थी, लेकिन इस बार राजनीतिक शब्दावली बदल रही है। इस बार भी लाहुल-स्पीति के सबसे ऊंचे मतदान केंद्र हिक्कम में लोकतंत्र का झंडा फहाराया जाएगा, लेकिन ठंड के बावजूद मुद्दे गर्म ही रहेंगे। ऐसे में गुजरात बनाम हिमाचल के चुनाव में मोदी मुद्दा बनते हैं या वीरभद्र स्थिर रहते हैं, इस पर सारा राजनीतिक दारोमदार टिका है।
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