चुनावी बिसात पर भाजपा और कांग्रेस

By: Nov 3rd, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

भाजपा का नेतृत्व प्रेम कुमार धूमल पहले से ही कर रहे हैं, चाहे वह पहले पार्टी के नेता घोषित नहीं हुए थे। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भाजपा को करीब 39 सीटें मिल सकती हैं। दूसरी ओर कांगे्रस को 24 सीटें मिल सकती हैं। अन्यों को 4-5 सीटें मिलने की संभावना है। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा ने जिस तरह की रणनीति बनाई है, उसके बल पर वह हिमाचल में बिछ चुकी चुनावी बिसात में खिताब झटकने में कामयाब होगी…

हिमाचल प्रदेश के आगामी चुनाव न केवल दोनों दलों के लिए निर्णायक साबित होंगे, बल्कि इस दौरान शतरंज की बिसात पर हाथी और प्यादे का रोमांचक खेल भी देखने को मिलेगा। विधानसभा की हर सीट पर शतरंज की तरह शह-मात की लड़ाई की प्रवृत्ति दिख रही है। कांग्रेस के लिए यह चुनाव इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि यह पार्टी काफी कुछ खो चुकी है। कांग्रेस द्वारा शासित राज्यों की संख्या 18 से घटकर अब मात्र छह रह गई है और भाजपा का कई राज्यों पर कब्जा होता जा रहा है। कांग्रेस तेजी से मोदी की कांग्रेस मुक्त भारत वाली संकल्पना की ओर बढ़ रही है। इसके साथ ही राहुल गांधी विफल होते जा रहे हैं और अब तक चुनाव प्रचार में उन्हें कोई बड़ी सफलता नहीं मिली है। इस बार गुजरात तथा हिमाचल, दोनों राज्यों में उन्हीं की देखरेख में चुनाव हो रहे हैं। वह आक्रामक प्रचार कर रहे हैं तथा यह जुमला भी चला है कि ‘जवाब का सवाल’ चाहिए। यह दीगर है कि हिमाचल में इस समय कांग्रेस का राज है तथा वह अपनी सत्ता कायम रखने के लिए खूब जोर लगा रही है। लिहाजा हिमाचल का कांग्रेस के लिए बहुत महत्त्व है। बड़ी चुनौती गुजरात में भाजपा को अस्थिर करने की है। इसलिए राहुल गांधी न केवल पार्टी के लिए निर्णायक निजी लड़ाई लड़ रहे हैं, बल्कि उन्हें राजनीतिक अखाड़े में स्वयं को भी साबित करना है। यहां तक कि खेत में काम कर रहा एक किसान भी कहता है कि अब तो भाजपा की बारी है। हिमाचल प्रदेश में 68 सीटों के लिए 349 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। कई उम्मीदवारों द्वारा नाम वापस लेने के बावजूद मुकाबला कड़ा लगता है। नाम वापस लेने वालों में जहां दोनों दलों के कई बागी शामिल हैं, वहीं इनमें कई आजाद प्रत्याशी व छोटी पार्टियों के उम्मीदवार भी शामिल हैं। दोनों दलों की अलग-अलग रणनीति का पहला संकेत चुनाव की शतरंजी बिसात पर प्यादे उतारने में देखने को मिला।

भाजपा ने सभी 68 प्रत्याशी पहली सूची में ही बिसात पर उतार दिए थे, लेकिन कांग्रेस में शुरुआती दौर में कुछ हिचकिचाहट देखी गई। उसने पहली सूची में 59 प्रत्याशी उतारे और नौ सीटों पर असमंजस जारी रहा। यह ठीक नीति नहीं थी और इससे लंबे समय तक संशय बना रहा। यह संशय इसलिए बना क्योंकि प्रत्याशियों की पहली सूची में उसने उन नामों को प्रकट नहीं किया, जो वंशवाद की परंपरा में आते हैं। कांग्रेस की रणनीति में उस समय खामी दिखाई दी, जब उसने अंततः ऐसे नाम घोषित कर दिए। अंतिम चरण में टॉप के कांगे्रस नेताओं के बेटे-बेटियों को टिकट थमा दिए गए। उधर भाजपा ने वंशवाद की परंपरा से जुड़े नेताओं को टिकट नहीं दिए, जिससे कांग्रेस की रणनीति ढकोसला साबित हुई। इस तरह के छिपे इरादों के साथ लुका-छिपी का खेल मतदाता पसंद नहीं करते हैं। अगर कांग्रेस को ऐसे ही प्रत्याशी मैदान में उतारने थे और अगर वे पार्टी टिकट के सही पात्र थे, तो उसे शुरुआत में ही हिचकिचाहट नहीं दिखानी चाहिए थी। लेकिन कांग्रेस ने जो रणनीति अपनाई, उससे उसका अनजाने में ही भेद खुल गया। कोटखाई बलात्कार मामले में कानून-व्यवस्था बनाए रखने का प्रश्न भी उद्वेलित करता है, जिससे कांग्रेस को क्षति हुई। उधर एक वन रक्षक की हत्या से भी कांग्रेस की छवि को नुकसान हुआ। इसके अलावा लचर पुलिस प्रशासन की मिसाल भी सामने आई, जब सीबीआई ने उसी आईजी को गिरफ्तार कर लिया, जो मामले की जांच कर रहा था। इससे पूरे प्रदेश में जनता चीत्कार करने लगी। इस मिसाल से प्रदेश में कुशल शासन प्रमाणित नहीं होता है।

कांग्रेस की तीसरी रणनीतिक विफलता यह थी कि यह सांगठनिक रूप से भी विफल रही। प्रदेश कांग्रेस कमेटी तथा पार्टी के विविध अनुषंगी संगठन प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाए। मुख्यमंत्री और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के बीच खुली लड़ाई हुई, जिससे कांग्रेस को क्षति पहुंची। इस तरह की लड़ाइयां पार्टी संगठन के निचले स्तर पर भी तेजी से फैलीं। अंत में, ऐसा लगा कि यही काफी नहीं था। कांग्रेस अपनी 90 वर्षीय वरिष्ठ नेता विद्या स्टोक्स से भी बेहतर ढंग से नहीं निपट पाई। उनकी उल्लेखनीय सेवाओं के प्रति असम्मान दिखाते हुए पार्टी ने उन्हें संन्यास लेने के लिए मजबूर कर दिया। विद्या स्टोक्स ने ठियोग की अपनी सीट मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के लिए खाली की, लेकिन अंत में सीएम ने ज्यादा सुरक्षित मानी जाने वाली सीट अर्की से चुनाव लड़ने की घोषणा कर डाली। इसके कारण कांग्रेस की इस वरिष्ठ नेत्री को निराशा हुई तथा इस मसले को लेकर मीडिया में भी बहुत कुछ छपा। कांग्रेस के भीतर ही कार्यकर्ताओं में यह चर्चा शुरू हो गई कि पार्टी के लिए जीवनभर काम करने वाले नेताओं को पूरा सम्मान नहीं मिल पाता है। इसकी सार्वजनिक आलोचना भी हुई। दूसरी ओर भाजपा में शांता कुमार व प्रेम कुमार धूमल के बीच लड़ाई को पार्टी की चारदीवारी के भीतर ही थाम लिया गया और इससे पार्टी को ज्यादा नुकसान नहीं हो सका।

केंद्रीय मंत्री जगत प्रकाश नड्डा ने दोनों नेताओं के बीच मध्यस्थता की और असंतोष की उठ रही चिंगारी को समय रहते बुझा लिया गया। इस पार्टी में भी कई नेता बागी तेवर अपनाए हुए हैं, लेकिन पार्टी का आधार माने जाने वाले कार्यकर्ताओं के बिना वे प्रभावी नहीं हो पाएंगे। भाजपा ने अपने इस वादे को भी निभाया कि वह वंशवादी परंपरा से जुड़े प्रत्याशियों को चुनाव में नहीं उतारेगी। इस मामले में कांग्रेस विफल रही तथा उस पर लगे परिवारवाद के आरोप सही साबित हुए। हिमाचल की राजनीति में अब तक दो दलों की ही प्रमुखता रही है। वर्ष 1985 से अब तक, भाजपा व कांग्रेस ही सत्ता पर बदल-बदल कर काबिज रही हैं। राजनीति की बिसात पर नए चेहरों को उतारना भी एक मास्टर स्ट्रोक है। विरोधी पार्टी के जीत सकने वाले उम्मीदवारों की राह को कोई ज्यादा सक्षम नेता उतारकर रोकना एक नई रणनीति है। प्रेम कुमार धूमल को हमीरपुर के बजाय सुजानपुर से उतारना इसकी एक मिसाल है। संभावना है कि वह कांग्रेस के उम्मीदवार राजेंद्र राणा को पराजित करने में सक्षम होंगे। राजेंद्र राणा पहले भाजपा में ही थे। भाजपा की इस तरह की रणनीति बेहतर है और वह ज्यादा से ज्यादा सीटें हथियाने का भरपूर प्रयास कर रही है। भाजपा का नेतृत्व प्रेम कुमार धूमल पहले से ही कर रहे हैं, चाहे वह पहले पार्टी के नेता घोषित नहीं हुए थे। इन सभी कारकों को देखते हुए इस बात में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भाजपा को करीब 39 सीटें मिल सकती हैं। दूसरी ओर कांगे्रस को 24 सीटें मिल सकती हैं। अन्य को चार-पांच सीटें मिलने की संभावना है। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा ने जिस तरह की रणनीति बनाई है, उसके बल पर वह हिमाचल में बिछ चुकी चुनावी बिसात में खिताब झटकने में कामयाब होगी।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


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