लवी के बिखरते मायने

By: Nov 16th, 2017 12:02 am

पहाड़ बुलाते हैं, इसे प्रमाणित करता लवी मेला अपने अस्तित्व की आधुनिक सदी से प्रश्न पूछता है। करीब तीन सौ सालों के इतिहास से लदा मेला अब एक सरकारी पहचान में घिसट रहा है या सिमट रहा है। सदियों से व्यापार की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को उत्पादन का आदान-प्रदान बताता यह मेला आज अपने दायरे को समझने की कोशिश कर रहा है। भले ही सांस्कृतिक संध्याओं में उफनते उत्साह को छूती भीड़ मस्त हो जाए, लेकिन व्यापार के पंडाल पर व्यापारिक असंतोष दुबक कर बैठा है। हम हिमाचल की क्षमता में बिखरते अंदाज को मेलों के दौरान देख सकते हैं और यह इसलिए क्योंकि सरकारी औपचारिकताओं में सामुदायिक या परंपरागत जमीन खिसक रही है। मेले अब महज ऐसे मंच हैं, जहां रौनक ही रुआब है यानी कि मेलों पर सवार होती इच्छाओं का सरकारीकरण हो चुका है। इसलिए कलाकार फरियादी और सिफारिशी हो गया, जबकि संस्कृति का पहनावा निरंतर बदलाव कर रहा है। लवी के मायने उस अटूट रिश्ते की गवाही देते थे, जो किसान-बागबान के खेत में पैदा होता था या ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सेतु पर चलता था। कमाल है इस परंपरा के संतुलन और सद्भावना का और ऐसी अर्थव्यवस्था की रीढ़ को समझे बिना लवी का मूल्यांकन नहीं हो सकता। आश्चर्य यह कि चुनावी आचार संहिता में ऐसी परंपराओं की बुनियाद पर असर हो जाए या मंच पर वोटिंग मशीन तन जाए, तो महत्त्व कम हो जाए। ऐसी खबर है कि लवी के गीत-संगीत व लय को चुनावी इंतजाम की नजर लग गई। जहां पूरा मेला मनोरंजन की तासीर में डूबता था, वहां ईवीएम मशीनों ने सारा परिदृश्य समेट लिया, लेकिन क्या लवी महज मनोरंजन है या व्यापार की एक प्राचीन लड़ी। एक ऐसा मेला जो ड्राई फ्रूट, गर्म कपड़ों, जड़ी-बूटियों की कीमत तय करता  था या घोड़ों की उन्नत नस्ल की खरीद-फरोख्त से जनता की क्षमता का मूल्यांकन करता था, आज बाजार की क्षमता में खुद की तलाशी ले रहा है। इस दौरान बाजार भी बदल गया और व्यापार के मायने भी। हथकरघे पर तनी शाल कभी उत्पादक को कलाकार का दर्जा भी देती थी, लेकिन आज पावरलूम की सफाई में घर-घर पैदा होती बुनाई के धागे उलझ गए। बावजूद इसके लवी के माहौल में खरीद-फरोख्त का नजरिया कहीं परंपराओं को आबाद रखता है और हम अतीत के आंचल में बैठकर यह गौरव महसूस कर सकते हैं कि परंपराएं इस प्रदेश की माटी को क्यों सलाम करती हैं। क्यों साल भर एकत्रित किए गए उत्पाद जब रामपुर के मैदान पर सजते हैं, तो बड़े से बड़े बिजनेस स्कूल के लिए ये अध्ययन की परिपाटी बन जाते हैं। यह दीगर है कि पारंपरिक मेलों की रफ्तार कुंद होकर नए एहसास को जन्म दे रही है। लवी में भी उस कलाकार का इंतजार रहता है, जो गैर हिमाचली होकर भी सारा मंच लूट कर ले जाता है और सामने हमारा अपना वजूद तिनका-तिनका होकर बिखर जाता है। हिमाचल के तमाम मेलों की व्यापारिक क्षमता और सांस्कृतिक विविधता को अगर एक साथ देखें, तो पर्यटन और आर्थिकी की एक सशक्त शृंखला अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को प्रश्रय दे सकती है। प्रदेश के मेला स्थलों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संवारने तथा विस्तारित करने की जरूरत है। हिमाचली उत्पादों की फेहरिस्त में ऐसे सभी मेलों का दायित्व अगर जुड़ता है, तो एक स्थायी अधोसंरचना व व्यवस्था के तहत काफी कुछ अर्जित किया जा सकता है।


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