विजन से बाहर रह गया साहित्य जगत

By: Nov 3rd, 2017 12:02 am

रमेश चंद्र ‘मस्ताना’

लेखक, नेरटी, कांगड़ा से हैं

साहित्यकारों की लेखनी को उचित सम्मान और मानदेय नसीब नहीं हो सका है। चुनावी उम्मीदवार साहित्यिक समाज की इन मांगों को भले ही घोषणा पत्र में स्थान नहीं दे पाए हों, लेकिन सत्ता में आने के बाद संबंधित क्षेत्र के कल्याण में योगदान का संकल्प तो ले ही सकते हैं…

विधानसभा चुनावों का डंका बजने के साथ ही कई नए-पुराने राजनेताओं के साथ-साथ इस बार डाक्टर, इंजीनियर और कई प्रबुद्ध बुद्धिजीवी भी दो-दो हाथ करके चुनावी रणक्षेत्र में अपना भाग्य आजमाने आतुर हैं। अब तक तो इन्होंने वे तमाम मुद्दे भी चिन्हित कर लिए हैं, जिनके आधार पर ये जनता के बीच वोट मांगने के लिए जाएंगे। हिमाचल प्रदेश का निर्माण पहाड़ों और पहाड़ी भाषा व बोली के कारण ही हुआ था। अस्तित्व में आए आज आधी सदी से भी अधिक समय गुजर चुका है, लेकिन हिमाचली-पहाड़ी बोलियों का अब तक मानकीकरण नहीं हो सका है। इसके अलावा कवियों, साहित्यकारों और समाज के प्रबुद्धजों की लेखनी को भी उचित सम्मान और मानदेय नसीब नहीं हो सका है। ऐसे में पहाड़ की पहचान पहाड़ी किस तरह आगे बढ़ पाएगी, इसका कोई अनुमान लगा पाना भी मुश्किल है। इससे भी बढ़कर हैरानी यह कि प्रदेश की राजनीति ने न कभी इस विषय को महसूस किया और न ही पहाड़ी भाषा को समृद्ध बनाने के संदर्भ में कोई व्यावहारिक रूपरेखा प्रदान की है।

हिमाचल प्रदेश के कवियों-साहित्यकारों की चिरकाल से लंबित रुदनरत मांग है कि उनकी मां-बोली पहाड़ी को संवैधानिक मान्यता के साथ आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करके साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा भी मान्यता प्रदान की जाए। यह दीगर है कि संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाओं का अपना एक खास रुतबा है। अभिव्यक्ति के लिए पहाड़ी भाषा को अपनाने वाला हर प्रदेशवासी भी अपनी भाषा के प्रति इस सम्मान को महसूस करना चाहता है। इसके लिए वह कई वर्षों से अपेक्षा कर रहा है कि पहाड़ी भाषा को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवाया जाए। अब समय आ गया है कि राजनीतिक दल भी इस दिशा में गंभीरता दिखाएं।  विगत कई वर्षों से इस मुद्दे की पुरजोर मांग एवं ज्ञापन केंद्र सरकार के साथ-साथ प्रदेश सरकार के सम्मुख रखे जा चुके हैं, परंतु परिणाम वही ढाक के तीन पात। पहाड़ी को इसका सम्मान दिलाने में राज्य से लेकर केंद्र स्तर की राजनीति में कोरी बहानेबाजी ही हो रही है। वर्ष 2010 में विधानसभा में इससे संबंधित प्रस्ताव भी बहुमत से पारित हुआ, परंतु वह प्रस्ताव आज कहां गुम है, कहीं कोई अता-पता नहीं। पंजाब एवं हरियाणा के वे क्षेत्र, जो भाषायी आधार पर हिमाचल में मिलाए गए थे, उन्हे भाषा के नाम पर पंजाबी एवं हरियाणवी को छोड़ने के एवज में क्या मिला? इस उपेक्षा के कारण मां-बोली हिमाचली पहाड़ी के कवियों-लेखकों को प्रदेश एवं केंद्रीय स्तर पर मिलने वाले सम्मानों एवं मानदेय से भी प्रायः वंचित रहना पड़ता है।

किसी भी उपक्रम की सफलता काफी हद तक आर्थिक पहलुओं पर निर्भर करती है। दुर्भाग्य से इस संदर्भ में कंगाली ही देखने को मिलती है। किसी साहित्यिक समारोह में जाने व रचना प्रस्तुत करने पर दैनिक-भत्ता, यात्रा भाड़ा और पारिश्रमिक आदि मानदेय पूर्व घोषणाओं से मेल खाते दिखाई नहीं देते हैं। वर्तमान में प्रदेश, राष्ट्र एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक पहलू, घटना, परिस्थिति एवं व्यक्तित्व के संदर्भ में दिवस विशेष मनाने की परंपरा विद्यमान है। किसी न किसी दिन को किसी व्यक्ति अथवा घटना से जोड़कर उस दिवस विशेष को प्ररेणामयी स्वरूप प्रदान कर अविस्मरणीय बनाने का प्रयास किया जाता है। रचना धर्मिता में रुचि रखने वाले साहित्यकार यह भी चाहते हैं कि एक दिन साहित्य को भी समर्पित किया जाए और वसंत पंचमी को, जिसे वाणी की देवी मां सरस्वती के अवतरण दिवस के रूप में जाना जाता है, उसे साहित्य दिवस के रूप में प्रदेश एवं केंद्र सरकार द्वारा मान्यता प्रदान की जाए। हिमाचल प्रदेश की राजनीति में प्रवेश करने वाले नई व पुरानी पीढ़ी के राजनेता जो विधायक बनने का स्वप्न संजोए हुए हैं, यदि वे कवियों-साहित्यकारों के मर्म की वेदना को समझते हुए एजेंडे में पहाड़ी बोली को संवैधानिक मान्यता दिलवाने हेतु नए सिरे से विधानसभा में प्रस्ताव पारित करवाने की प्रतिबद्धता दर्शाएं, तो साहित्य जगत को एक नई ऊर्जा मिलेगी।

दैनिक भत्ते व मानदेय के अतिरिक्त तीन बस किरायों की परंपरा को बहाल करवाने के साथ-साथ यदि वसंत पंचमी अथवा मां-सरस्वती के प्रकटोत्सव के साहित्य दिवस के रूप में मान्यता दिलवाने का आश्वासन दें, तो प्रत्येक मतदान केंद्र के कवि व साहित्यकार खुलेमन से मतदान करते हुए मां-बोली के प्रेमी प्रत्याशी को अपना समर्थन दे सकते हैं। आगामी विधानसभा के उम्मीदवार साहित्यिक समाज की इन मांगों को भले घोषणा पत्र में स्थान नहीं दे पाए हों, लेकिन सत्ता में आने के बाद इस क्षेत्र के कल्याण में योगदान देने का संकल्प तो ले ही सकते हैं। इस तरह ये मां बोली के प्रति अपने विश्वास को अटल बनाने का प्रयास अवश्य करेंगे। पहाड़ी बोली की यह एक बड़ी सेवा होगी।


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