शब्द वृत्ति
अब तंबू लिए लपेट
(डा. सत्येंद्र शर्मा, चिंबलहार, पालमपुर )
ईवीएम में बंद है, अब उनकी तकदीर,
रोज-रोज धुकधुक बढ़ी, कौन धराए धीर।
एक महीना काटना, एक साल की जेल,
दिल की धड़कन इस कद्र, हो न जाए फेल।
नोट लुटे, दंगल उठे, तंबू लिए लपेट,
भ्रष्टों को क्या फर्क है, जो हैं धन्नासेठ।
नींद उड़ गई आंख से, उड़ा चित्त से चैन,
भूख, प्यास गायब हुई, निर्दलीय बेचैन।
हार देखकर भिड़ गए, कुछ थे पंगेबाज,
मदिरालय में चल रहा, कुछ का आज इलाज।
लठ्ठमलठ्ठ बज गया, राजनीति का खेल,
लोकतंत्र ही चल पड़ा, आज बेचने तेल।
रस्साकशी थी चली, मेहनत की पुरजोर,
मूंछें ऐंठें साथ में, कुछ गुंडे कुछ चोर।
जुड़े हुए थे गांव से, हर घर से भरपूर,
वंचित हो गए टिकट से, स्वप्न हो गए चूर।
सौ-सौ खोट ढके गए, बांटे दारू, नोट,
भाग्य बंधा अब वोट से, लोकतंत्र पर चोट।
कीड़ा है मस्तिष्क में, सेवा का है शौक,
उसने दल की पीठ पर, दी कटार अब भोंक।
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