चुनौतियों के साथ संभावनाएं भी बेशुमार

By: Nov 21st, 2017 12:02 am

शरद गुप्ता

लेखक, शिमला में उद्यान विकास अधिकारी हैं

प्रदेश में सेब का उत्पादन 5.7 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है, जबकि हमारे पड़ोसी प्रदेश जम्मू-कश्मीर में यह 10.11 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है।  इस अंतर की भरपाई के लिए प्रदेश के बागबानों को वैज्ञानिक तरीके से खेती की नवीनतम तकनीकों का उपयोग करना होगा…

जैसे-जैसे तकनीकी का दौर बढ़ रहा है, हिमाचल का बागबान और बागबानी क्षेत्र नई तकनीकों को तेजी से अपनाता जा रहा है। विभिन्न संचार या सूचना माध्यमों जैसे इंटरनेट, किताबों, सेमिनार, वैज्ञानिक परामर्श इत्यादि से जानकारी जुटा कर ये अपने बागीचों में इस्तेमाल कर अच्छी आय अर्जित रहे हैं। यदि हम हिमाचल में फलोत्पादन की बात करें, तो यहां कुल उत्पादित फल का लगभग 75 फीसदी तो सेब का ही उत्पादन है। इस दृष्टि से यदि सेब को ‘हिमाचल का फल राजा’ कहा जाए, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रदेश की आर्थिकी को सुदृढ़ करने में इसका अहम योगदान है। हिमाचल में सेब शिमला, मंडी, कुल्लू, चंबा, किन्नौर, लाहुल-स्पीति व सिरमौर जिलों में उगाया जा रहा है। वर्तमान में प्रदेश में सेब का उत्पादन 5.7 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है, जबकि हमारे पड़ोसी प्रदेश जम्मू-कश्मीर में यह 10.11 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है। इसी संदर्भ में यदि विश्व के अग्रणी देशों से इसकी तुलना की जाए, तो यह औसतन 50.60 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है। इस बड़े अंतर की भरपाई के लिए प्रदेश के बागबानों को वैज्ञानिक तरीके से खेती की नवीनतम तकनीकों का उपयोग करना होगा। बागबानी के क्षेत्र में सघन खेती इसका एक अच्छा विकल्प है।

पुराने तरीके से जहां प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में सेब के लगभग 250 पौधे लगाए जाते थे, वहीं आज सघन खेती के अंतर्गत 2500 से 3000 तक पौधे लगाए जा रहे हैं, जो चार से पांच वर्षों में ही फल देना शुरू कर देते हैं। इसके विपरीत पुरानी तकनीकी से लगाए गए पौधे, फल देने में 10 से 12 वर्ष तक लगा देतें हैं। इसके लिए उद्यान विभाग के द्वारा चलाई जा रही बागबानी विकास परियोजना के अंतर्गत पौधों का आयात किया जा रहा है। इसी दिशा में बागबानों के लिए आधुनिक कृषि के नए आयाम स्थापित किए जा रहे हैं। जहां एक तरफ नए अवसर हैं, वहीं दूसरी तरफ चुनौतियां भी भरपूर हैं। कुछ लोगों के व्यक्तिगत प्रयासों या कंपनियों द्वारा अवैध रूप से लाए जा रहे विदेशी पौधों का बागबानों को वितरण किया जाना सेब उद्योग के लिए खतरे की घंटी है। भारत में फायर ब्लाइट जैसी भयंकर बीमारी भी तक नहीं देखी गई है, जबकि यूरोपियन देशों में इस बीमारी ने बागबानों और वैज्ञानिकों की नाक में दम कर रखा है। इस अंधाधुंध अवैध आयात के चलते यदि दुर्भाग्यवश इस बीमारी का कीटाणु हिमाचल में प्रवेश कर गया, तो रातोंरात सेब के बागीचे तबाह होते देर नहीं लगेगी। कहना न होगा कि उस आपातकालीन स्थिति में हमारे बागबान और वैज्ञानिक स्वयं को असहाय महसूस कर रहे होंगे।

दूसरी तरफ हमारे लिए उच्च गुणवत्ता के फलों का उत्पादन करना एक अन्य चुनौती है। जैसे-जैसे विदेशों से उच्च गुणवत्ता के फलों का आयात हो रहा है, हिमाचल के सेब की मांग फीकी पड़ती जा रही है। भारत में अकसर लाल रंग के सेब को प्राथमिकता दी जाती है, परंतु विदेशों से आयातित विभिन्न प्रकार के सेब के चलते भारत के लोगों के स्वाद में भी धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। आज आवश्यकता है बाजार में हो रहे इस बदलाव को समझने की और उसी के अनुसार योजनाबद्ध तरीके से बागबानी करने की। कहीं ऐसा न हो कि आगामी 15 वर्षों के बाद बाजार में किसी विशेष प्रकार के सेब की मांग हो और हिमाचल का बागबान कुछ और ही किस्मों के फल उत्पादित कर रहा हो। भविष्य में ऐसी विषम परिस्थितियों से बागबानों को जूझना पड़ सकता है। इन्हें भांपते हुए हमारे बागबानों, वैज्ञानिकों और बागबानी विभाग को पहले से ही अपनी तैयारी रखनी चाहिए। हिमाचली अर्थव्यवस्था में फलोत्पादन और उसमें भी सेब की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। देश के विभिन्न राज्यों जीडीपी के लिहाज से अगर हिमाचल का आज उल्लेखनीय स्थान है, तो उसमें सेब अर्थव्यवस्था को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे में सेब उत्पादन क्षेत्र में वक्त की मांग के मुताबिक आवश्यक बदलाव करना और भी जरूरी हो जाता है। अकसर यह भी देखा गया है कि हिमाचली बागबान लंबे समय से विदेशी सेब पर आयात शुल्क बढ़ाने की मांग करते आ रहे हैं। बागबानों की इस मांग को सरकार कितना पूरा कर पाती है, यह विषय विचारणीय है। भारत में सेब का कुल उत्पादन लगभग 2.4 लाख मीट्रिक टन है, जबकि आम का 15 लाख मीट्रिक टन के आसपास। यह विश्व के कुल आम उत्पादन का लगभग 40 फीसदी है। इस परिस्थिति में आम को विदेशों में निर्यात किया जा रहा है, जबकि सेब को आयात किया जा रहा है।

यदि सरकार सेब पर आयात शुल्क बढ़ाती है, तो संभावना यह है कि दूसरे देश भी आम पर आयात शुल्क बढ़ा सकते हैं। इस विरोधाभासी स्थिति से निकलना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। अतः कोई भी सरकार यह नहीं चाहेगी कि कम उत्पादित सेब के लिए आम की फसल के साथ समझौता किया जाए। अतः बागबानों को उच्च गुणवत्ता के बीमारी रहित पौधे, किस्मों का चयन बाजार की मांग के अनुरूप अच्छी गुणवत्ता के फलों का उत्पादन करना होगा, तभी सेब से भविष्य में भी अच्छा मुनाफा अर्जित किया जा सकता है।

ई-मेल : orchid.gupta@gmail.com


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