आध्यात्मिक दृष्टिकोण

By: Dec 2nd, 2017 12:05 am

बाबा हरदेव

पवित्र गीता का फरमान है कि ‘समत्व योग है और समता का बोध श्रेष्ठतम योग है, जो अपनी सादृश्ता से संपूर्ण भूतों में सम देखता है, वह योगी श्रेष्ठतम माना गया है।’ अब आम अर्थों में एक समता तो यह है कि हम दो आदमियों को समान समझें, हमारी नजर में ‘अ’ और ‘ब’ समान हों, मगर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से इस प्रकार की समता को बहुत गहरी बात नहीं माना जाता, क्योंकि दो आदमियों को समान समझने में कोई बहुत बड़ी कठिनाई नहीं है। हां! स्वयं को दूसरों के समान समझना अपने सादृश्य से सब में ही सम-स्थिति देखना ‘मैं’ और ‘तू’ को समान समझना, यह बहुत गहरी और असली ‘समता’ है अगरचे यह एक कठिनतम काम है। उदाहरण के तौर पर अगर कोई दूसरा व्यक्ति बुराई करता है, कोई बुरा काम करता है तो हम अकसर कहते हैं कि वो बुरा काम करने वाला आदमी बहुत बुरा है और अगर हम खुद वही बुराई करते हैं, तो हम कहते हैं कि यह हमारी मजबूरी है। इसी प्रकार अगर कोई दूसरा आदमी चोरी करने की हरकत करता है, तो वह आपधर्म है, इसी तरह अगर हम खुद क्रोध करते हैं तो हम कहते हैं कि यह तो दूसरे के सुधार के लिए हम क्रोधित हुए हैं और अगर कोई दूसरा व्यक्ति क्रोध करता है तो फिर वह हमारी नजरों में हिंसक है, हत्यारा है, मानो तब हम कभी अपने सादृश्य से नहीं सोचते और न ही हम दूसरे के संबंध में कोई निर्णय अपने सादृश्य से लेते हैं। चुनांचे दूसरे को हम कभी उस भांति नहीं सोचते जैसा हम स्वयं के बारे में सोचते हैं। हमारे सोचने की विधि और पद्धति यह है कि दूसरे व्यक्ति को जो निकृष्टतम है वह उसका सार तत्त्व है और हमारा जो श्रेष्ठतम है वह हमारा सार तत्त्व है मानो हमारा स्वयं का जो शिखर है, वह हमारा स्वभाव है और दूसरे आदमी की जो खाई है वह उसका स्वभाव है। इसीलिए हमसे निरंतर अन्याय हुआ चला जाता है। ऐसे हालात में भला असली ‘समता’ कैसे हो सकती है? वास्तविकता तो यह है कि दूसरे व्यक्ति का भी शिखर है और हमारी भी खाई जरूर मौजूद है। चुनांचे महात्माओं के कथन अनुसार समता और सादृश्यता का अर्थ है कि जब हम दूसरे की खाई के संबंध में सोचें तो पहले अपनी खाई को जरूर ध्यान में ले लें। तब हम पाएंगे कि हमसे बड़ी खाई किसी दूसरे की नहीं है और इसी प्रकार जब हम अपने शिखर के बारे में सोचें तो दूसरे के शिखर के बारे में भी सोच लें, फिर हम पाएंगे कि हमसे छोटा शिखर किसी का नहीं है। अब मनुष्य जीवन में सादृश्य के आते ही महा करुणा पैदा होती है क्योंकि ज्ञान भीतर करुणा बाहर, इन दोनों का संग है इसलिए इस संसार में दो प्रकार के लोग हैं। एक वह जो वासना में जीने वाले हैं और दूसरे वह जो करुणा में जीने वाले हैं। वासना में वह लोग जीते हैं, जो अहंकार को अपना केंद्र बना लेते हैं और करुणा में वह जीते हैं, जो दूसरों के साथ सादृश्य को उपलब्ध हो जाते हैं। मानो सादृश्य से अहंकार की मृत्यु हो जाती है। सादृश्य इस बात की खबर देती है कि दूसरा भी उतना ही कमजोर है जितना कमजोर हम स्वयं हैं यानी सादृश्यता का अर्थ है  कि दूसरा भी उतना ही सीमाओं में बंधा है, जितनी सीमाओं से हम खुद बंधे हैं। अब चूंकि सादृश्यता के बोध से मनुष्य अनजान है नावाकिफ है।


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