यह बर्फ का घोंसला है

By: Dec 14th, 2017 12:05 am

पहाड़ पर अगर बर्फ नहीं, तो देश में समृद्धि नहीं। समृद्धि का उद्गम करती बर्फ की अपनी पहचान, प्रवृत्ति और प्रखरता है। रूखे मौसम पर जब बर्फ के फाहे जमते हैं, तो रात भी चांदनी गिनने निकल आती है और इसीलिए हिमाचल में सर्दी की आर्थिकी में ठिठुरना भी एक तरह का निवेश है। बर्फ और बरसात के माध्यम से अपने अस्तित्व के करीब संभावना को ओढ़ना भी त्रासदी है और यही वह मुआयना है, जो देश कभी करना नहीं चाहता। मौसम हर साल अपने विशेषाधिकार के साथ पर्वत को जब मालामाल करना चाहता है, जिंदगी की न जाने कितनी कोंपलें मिट जाती हैं और यही वह संघर्ष है, जो हिमाचल का कोई न कोई हिस्सा करता है। सर्दियों के बीच रास्ता बनाने की कोशिश में उस जिंदगी के सामने खड़े विराम को महसूस करें, जो कबायली क्षेत्रों के लिए हर साल का आधा भाग केवल जीने के प्रमाण पत्र को किसी तरह सहेज कर रखना है। बर्फबारी के इस दौर में जीने की आपदा को समझना जरूरी है। यह इसलिए कि यहां बर्फ के घोंसले में हर सांस की कीमत और जिंदा रहने की मात्रा निश्चित है। कमाल यह है कि बर्फ सताती है और भविष्य की कामना भी यही है कि प्रकृति का यह अंदाज न बदले। हालांकि बर्फ को हमने काफी पीछे धकेल दिया, इसलिए जहां तक सेब की पैदावार होती थी, वहां गर्म होते एहसास ने सब्जियों की खेती शुरू कर दी। बर्फ के इसी तोहफे से रू-ब-रू हिमाचल अगर सेब की पैदावार की ओर देखे, तो बढ़ते चिलिंग आवर्स की घंटियां सुनाई देती हैं। निचले क्षेत्रों में सूखे खेत पर टपकती बूंदों ने गेहूं को मानों खुराक दे दी और किसान मौसम की मेहरबानी पर खुशी से भर गया। यूं तो मौसम के कारण हिमाचल के दो विश्वविद्यालयों का अस्तित्व देखा जाना चाहिए, लेकिन अनुसंधान की अपनी विरासत के बाहर न किसान और न ही बागबान के भरोसे की मिलकीयत में, ये अपने लिए कुछ सहेज पाए। मानों कृषि विश्वविद्यालय ने हाथ खड़े कर लिए हों कि उसकी परिधि में बरसते बादलों का मानसूनी अंदाज या तो धान के काबिल है या इससे हटकर धरती कुछ उगा ही नहीं सकती। क्या कोई विश्वविद्यालय मौसम को केवल विकराल ठहरा कर अपने अनुसंधान पर ताला लगा सकता है, लेकिन ऐसा तब माना जाता है, जब उन्नतिशील किसान को प्रतिकूल मौसम से बाहर निकलने का विकल्प नहीं मिलता। ऐसे में हरिमन शर्मा या डा. विक्रम शर्मा जैसे लोगों के प्रयास नगीना बन जाते हैं, जब गर्म इलाके सेब उगा लेते हैं या हिमाचल में कॉफी के पौधे फसल दे देते हैं। बागबानी विश्वविद्यालय के सान्निध्य में चिलगोजे का जन्म अगर नहीं हो पा रहा, तो मौसम की अनुकूलता भी क्या करेगी या किन्नू की पैदावार पतली पड़ जाएगी, तो अनुसंधान के हिमाचली मायने हैं क्या। बहरहाल मौसम के हर तेवर पर फिदा किसान व बागबान अपने अस्तित्व की जमीन पर खड़े रहने के लिए हर परिस्थिति का मुकाबला कर रहा है। बावजूद इसके कि हिमाचल की तरक्की एक मिसाल की तरह पेश होती है, यहां मौसम की परतों के नीचे जद्दोजहद का हर पल कठिन है। इसलिए बर्फबारी के दौर में सिमटती जिंदगी और टूटते कवच की कहानी उस बिजली के खंभे पर लटक जाती है, जो कई दिनों तक मुर्दा हो जाता है या जलापूर्ति की पाइप में पानी का जमकर बर्फ बन जाना और फिर बारूद की तरह फटने से एक घूंट पानी के लिए तरस जाना कितना कष्टप्रद होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन है। जिदंगी की इसी विरासत का नाम है पहाड़, जो कभी मिलावटी नहीं होता। कभी एक बार इस पहलू को समझने की कोशिश भी तो की जाए कि हिमाचल में मौसम के साथ इनसान का रिश्ता ही संघर्ष का है। यह उन प्राकृतिक आपदाओं से कम नहीं, जहां लोग बाढ़ से बेघर होते हैं। यह बर्फ का घोंसला है, जिसके भीतर जिंदगी बर्फ सी रहती है।


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