कुमारसैन में तीरअंदाजी के खेल को कहते हैं ‘ठोड’

By: Jan 31st, 2018 12:05 am

कुमारसैन और इसके आसपास के क्षेत्रों में तीरकमान का खेल इस दिन के मेलों का विशेष खेल होता है, जिसे ‘ठोड’ का खेल कहते हैं। कहीं-कहीं आज के दिन छिंजों यानी कुश्तियों का आयोजन भी किया जाता है। ये मेलों में भी आयोजित हो सकती हैं और इनके कारण मेले भी लग सकते हैं…

त्योहारों की भांति मेलों का भी पहाड़ी जीवन में विशेष महत्त्व है। देश के बहुत सारे त्योहार लोकगाथाओं और देवताओं से जुड़े हैं। मैदानों के मेलों की भांति पहाड़ों में मेलों के आयोजन का उद्देश्य दुकानें सजाकर क्रय-विक्रय न होकर (विशेष कर मध्य व ऊपरी भाग में) देवताओं को प्रसन्न करना होता है। आम तौर पर कई देवताओं और उनके पूजकों का इकट्ठा होना ही मेले का रूप ले लेता है। मेले लोगों में लोकप्रिय हैं और त्योहारों की भांति सारा साल ही कहीं न कहीं मेलों का आयोजन होता रहता है, जिसमें बच्चे, बूढ़े, जवान, मर्दों के साथ स्त्रियां भी उल्लासपूर्वक भाग लेती हैं। यदि कोई व्यक्ति हिमाचल के सही सांस्कृतिक जीवन की झांकी देखना चाहे तो उसे यहां के मेले अवश्य देखने चाहिए। मेलों में स्थानीय वाद्य-यंत्रों नरसिंगा, कानल, शहनाई, ढोलक, डोरू आदि से सुसज्जित लोग अपने-अपने देवताओं को लेकर पहुंच जाते हैं। नया स्थानीय पहरावा पहना जाता है। स्थानीय नृत्यों का आयोजन किया जाता है, जिसमें स्त्री-पुरुष सभी भाग लेते हैं। इन मेलों के अन्य आकर्षण हैं-कुश्तियां, तीरअंदाजी के मुकाबले और नृत्य-गान के मुकाबले आदि। हिमाचल में आयोजित किए जाने वाले मेलों को मुख्यतः तीन वर्गों में बांटा जा सकता है।

  1. त्योहार व इतिहास से संबंधित मेले, 2. देवताओं या पौराणिक गाथाओं से संबंधित मेले
  2. व्यापारिक और कृषि मेले

यह वर्गीकरण सामान्य है। कई मेलों में एक या एक से अधिक सभी वर्गों के मेलों की विशेषताओं का मिश्रण होता है।त्योहार व इतिहास से संबंधित मेले: आम तौर पर प्रत्येक त्योहार या उसके एक दिन बाद में हिमाचल प्रदेश में मेलों का आयोजन किया जाता है। इन मेलों में अधिकतर बैसाखी (प्रथम बैसाखी) के दिन मनाए जाने वाले मेले हैं। यदि यह कह दिया जाए कि इस दिन हिमाचल का जनजीवन ही मेलों में परिवर्तित हो जाता है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसका कारण शायद सर्दी और गर्मी के मध्य वसंत ऋतु का मौसम ही है। मध्य भाग के क्षेत्रों में इस दिन (शायद सर्दी के बाद) देवता लोग पालकी में बैठकर बाहर निकलते हैं। उनके आगे ढोलक, शहनाइयां व अन्य वाद्य यंत्र बजाते हुए पुजारी और गूर सहित गांव के अन्य लोग होते हैं। जैसे ही देवता जनसमूह के साथ मेले में पहुंचता है, जो आम तौर पर पहाड़ी की चोटी पर होता है, सारा माहौल उल्लासपूर्र्ण बन जाता है। जो चीज जिसके हाथ में हो, वह उसकी प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। कुमारसैन और इसके आसपास के क्षेत्रों में तीरकमान का खेल इस दिन के मेलों का विशेष खेल होता है, जिसे ‘ठोड’ का खेल कहते हैं। कहीं-कहीं आज के दिन छिंजों यानी कुश्तियों का आयोजन भी किया जाता है। ये मेलों में भी आयोजित हो सकती है और इनके कारण मेले भी लग सकते हैं। बैसाखी पूरे उत्तरी भारत में मनाया जाता है।


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