मंतव्य, मंत्रिमंडल और मानक

By: Jan 2nd, 2018 12:05 am

जयराम सरकार हालांकि पूर्व सरकार के अंतिम पहर के फैसले की समीक्षा में निर्णायक भूमिका में है, फिर भी इसके व्यवहार की पड़ताल जनता हमेशा की तरह करेगी। मंत्री फील्ड में चिन्हित होती प्राथमिकताओं से आलिंगनबद्ध हैं, तो मुख्यमंत्री केंद्रीय सत्ता के आशीर्वाद से हिमाचली माथे की लकीरें चौड़ी कर रहे हैं। जाहिर है सत्ता की कार्यशीलता, लक्ष्य की स्पष्टता और वचनबद्धता से ही संभव है और इस लिहाज से केंद्र से लेकर दायित्व के प्रत्येक केंद्र बिंदु तक खुलासा हो रहा है। सरकारी पद, नियुक्तियां और प्रशासनिक रेखांकन का दौर जब भाजपा सरकार की रूह से मेल खाएगा, तो उम्मीदों की डगर पर गतिविधियां जोर पकड़ेंगी। मंत्रिमंडल के गठन की जो खासियत है, वह व्यावहारिक रूप से सामने आएगी और जब कोई मंत्री अपने विभाग की छवि को पूरे प्रदेश के भविष्य से जोड़ लेगा, तो सारी रणनीति सामने आएगी। फिलहाल कहीं गूढ़ मंतव्य में गूंजा मंत्रिमंडल, सरकार के सोच की नई परिपाटी सरीखा देखा जाएगा। यह इसलिए कि मंत्रियों के विभागों का आबंटन उनकी सियासी आवश्यकताओं से अलग है। यानी मंत्री दायित्व का केवल झंडा अपने विधानसभा क्षेत्र में नहीं गाड़ पाएंगे। उदाहरण के लिए अगर कृषि का दारोमदार रामलाल मार्कंडेय पर है, तो यह समझा जा सकता है कि उन्हें लाहुल-स्पीति से बाहर निकलकर सारे मैदानी इलाके नापने होंगे। शाहपुर से सरवीण के पास अगर शहरी विकास है, तो इसकी प्राथमिकताएं उन्हें विधानसभा क्षेत्र से बाहर ले जाकर विकसित होते शहरी ढांचे से जोड़ेंगी। अगर औद्योगिक बस्तियां राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों में हैं, तो मध्य से विक्रम सिंह की दृष्टि को विधानसभा क्षेत्र से बाहर देखना ही पड़ेगा। इसी तरह सुरेश भारद्वाज की क्षमता में शिमला या किशन कपूर की पैरवी में स्मार्ट सिटी की रूपरेखा का जिम्मा न देकर अलग विभाग की किताब या तराजू सौंपे हैं। देखना यह है कि सुरेश भारद्वाज कांगड़ा के दुर्ग में फंसे केंद्रीय विश्वविद्यालय की औचित्यपूर्ण स्थापना का बीड़ा कैसे उठाते हैं। हिमाचल में परिवहन मंत्रालय पहली बार एक छोर पर खड़ा होकर राज्य की नीतियां देखेगा। ऐसे में यह समझना आसान है कि मंत्रियों को अपने प्रदर्शन के लिए पूरे प्रदेश की जमीन ढूंढनी पड़ेगी। बावजूद इसके मंत्रिमंडल के अपने संतुलन में भौगोलिक अपेक्षाओं का समाधान अभी मौन है। मंत्रिमंडल के बाहर रहे रमेश धवाला के पक्ष में उठ रहा अभिमत ठीक वैसा ही है, जैसे गुजरात में घोषित उपमुख्यमंत्री के साथ अप्रसन्न घटनाक्रम। जाहिर है कि कांगड़ा-मंडी के बीच संतुलन तराश रही सरकार ने प्रदेश की भौगोलिक अहमियत कहीं जरूर घटा दी है। युवा चेहरों की नुमाइश में अनुभव की रिवायत घटा दी है। मंत्रालयों के अनुपात में भी प्रदर्शन का सवाल खड़ा हो रहा है, तो जातियों को साधने की कोशिश में संतुलन ओबीसी के अखाड़े में अड़ रहा है। रमेश धवाला की दावेदारी को खारिज करने के कारण मुख्यमंत्री के पास जरूर होंगे, लेकिन कांगड़ा के जातीय समीकरणों में ऐसे सुराख का जिक्र बढ़ता जाएगा। न केवल कांगड़ा, बल्कि हमीरपुर, ऊना, सोलन व सिरमौर के कृषक समाज में ओबीसी मतदाताओं का नेतृत्व सदा उदासीन नहीं रखा जा सकता, लिहाजा लोकसभा के विजय रथ में इस वर्ग का सामर्थ्य समझना पड़ेगा। मंत्रिमंडल की युवा ऊर्जा के बावजूद किशन कपूर जैसे वरिष्ठ नेता के हाथों में पिछली सरकार की विरासत का अधूरापन दिखाई दे रहा है। बहरहाल अब मंत्रिमंडल से आगे नौकरशाही में हो रही उथल-पुथल, नई हकीकत को अंगीकार करने का समाधान है। सुशासन की डगर पर जिला स्तरीय अधिकारियों की नई खेप को देखा जाएगा। अमूमन स्थानीय अधिकारियों के प्रति झुकाव कई बार योग्यता-दक्षता को भुला देता है और इससे जनता के सामने छवि की संकीर्णता ही पुष्ट होती है। किसी भी जिला के लिए योग्य जिलाधीश व पुलिस अधीक्षक का चयन, सरकार को प्रतिबिंबित करता है। प्रदेश में नशे के खिलाफ अगर सरकार को आश्वासन देना है या यातायात को अनुशासित करना है, तो पुलिस अधिकारियें की सूची में केवल कर्मठता परोसनी होगी। जनता को सरकार के दर्शन उसकी मशीनरी से होते हैं, लिहाजा कर्मचारियों में अंतिम छोर पर खड़े किसी अदने से पद का महत्त्व भी बड़ा होगा। हिमाचल में स्थानांतरण अगर एक कड़ी नीति के तहत अंजाम तक पहुंचे, तो सुशासन का सफर आसान हो जाएगा, वरना कार्यसंस्कृति में सियासी प्रश्रय की हुकूमत यथावत रहेगी। प्रदेश में सुशासन की ताजपोशी के लिए हर जिला के लिए एक-एक पालक या संपर्क मंत्री बनाया जाए। संपर्क मंत्री जिला के बाहर से कोई मंत्री हो और जिसकी देखरेख में सुशासन व विकास का समन्वय स्थापित हो, तभी सही मायने में सरकार के मंतव्य व मानक सामने आएंगे।


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