विदेशी जमीं पर देश बदनाम

By: Jan 11th, 2018 12:05 am

विदेशों में प्रवास के दौरान बेशक प्रधानमंत्री मोदी हों या कांगे्रस अध्यक्ष राहुल गांधी, किसी को भी देश को बदनाम या लांछित करने अथवा संकटग्रस्त करार देने का लाइसेंस नहीं मिला है। देश सर्वोपरि और संप्रभु है। किसी भी देश में समस्याएं हो सकती हैं, राजनीति में आपसी टकराव होते ही हैं, आकलन अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन कोई भी शख्स देश की मिट्टी पलीद नहीं कर सकता। देश में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य की दुर्दशा है और इन क्षेत्रों पर चर्चा नहीं की जाती, यह राहुल गांधी का अर्द्धसत्य है। हिंदोस्तान संकट में है, युवाओं के गुस्से को नफरत में बदला जा रहा है। कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की हत्याएं हो रही हैं, देश को जाति और धर्म में बांटा जा रहा है। ये तमाम आरोप राहुल गांधी के पूर्वाग्रह हैं, घरेलू सियासत के जुमले हैं। इनसे विदेश में बसे भारतवंशियों को क्या लेना-देना है? क्या राहुल गांधी बहरीन में संबोधन के जरिए खाड़ी देशों में बसे और कार्यरत करीब 35 लाख प्रवासी भारतीयों को यह संदेश देना चाहते हैं कि भारत में कोई प्रगति नहीं हो रही है। लिहाजा आप अपने मूल देश में निवेश न करें? क्या यह कथन राष्ट्रहित में है? बेशक प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के अतीत को छूते हुए बीती सरकारों के फैसलों और कामों पर विवादास्पद टिप्पणियां की थीं। उनसे बचा जा सकता था, लेकिन प्रधानमंत्री ने उन वर्णनों के जरिए भारत की मौजूदा समृद्ध, संपन्न और स्वीकार्य स्थिति के प्रति भारतवंशियों में विश्वास जगाया था और अपने मूल देश में निवेश का आह्वान किया था। प्रधानमंत्री मोदी पूरी तरह नकारात्मक नहीं थे, लेकिन राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी को निशाना बनाते हुए हिंदोस्तान की बदनामी करते हैं, यह तो देश विरोधी हरकत है। यही दोनों नेताओं की सोच और सियासत में बुनियादी अंतर है। बेशक राहुल गांधी कुछ भी कहें, लेकिन हकीकत यह है कि 2016-17 के दौरान 6080 करोड़ डालर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भारत में आया है। बीते साल में ही देश में रिकार्ड 16 अरब डालर का निवेश किया गया है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि देश आने वाले निवेश में से आधा पिछले तीन सालों में ही आया है। अमरीका और यूरोप के देश भारत को अपना पहला बगलगीर घोषित कर रहे हैं। तमाम विरोधाभासों के बावजूद चीन अपना प्रथम कारोबारी सहयोगी देश भारत को ही मानता है। डोकलाम विवाद में चीन ने भारत की सैन्य शक्ति को भी सूंघ लिया था। हकीकत है कि आज दुनिया में हरेक मंच पर भारत-भारत हो रहा है। आईएमएफ, विश्व बैंक, मूडीज, आसियान देशों का गठबंधन आदि ऐसे संस्थान नहीं हैं, जो यूं ही भारत का महिमामंडन करते रहें। यदि मौजूदा सरकार में बोलने, खाने-पीने, विरोध करने की छूट नहीं है, तो जिग्नेश मेवाणी सरीखे औसत दलित नेता दिल्ली में संसद मार्ग पर एक भीड़ के साथ प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ नारेबाजी कैसे कर पाए? मोदी विरोधी राजनीतिक दल संसद के भीतर और बाहर लगातार प्रधानमंत्री को कैसे गरियाते रहते हैं? अखबारों और अन्य मीडिया में मोदी-विरोधी विश्लेषण और खबरें किस तरह स्थान पा रही हैं? न्यायपालिका में सरकार विरोधी फैसले भी क्यों किए जा रहे हैं? दरअसल समस्या राहुल गांधी की बौद्धिकता और परिपक्वता की है। गुजरात में कांगे्रस की 20 सीटें क्या बढ़ीं कि राहुल ने खुद को विजेता मानना शुरू कर दिया। देश का यथार्थ या तो उन्हें दिखता नहीं है अथवा वह देख-समझ कर भी उसकी व्याख्या कुछ और करना चाहते हैं। इससे राजनीतिक सफलताएं ज्यादा नहीं मिलेंगी, लेकिन देश जरूर बदनाम होगा। अभी तक तो धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते नहीं थकती थी कांगे्रस, लेकिन अब गुजरात में राम मंदिरों की मरम्मत की जाएगी, श्रीराम सूर्योदय और संध्या की आरतियों के लिए समितियां बनाई जाएंगी। राजनीति में कामयाबी के मद्देनजर अब हिंदुत्व का चोला धारण करने की तैयारी है यानी राजनीति की भी नकल। जाति, धर्म, रंग, संप्रदाय के नाम पर किसने देश को बांटा है और सत्ताएं हासिल की हैं, यह हिंदोस्तान के नागरिक भलीभांति जानते हैं। नफरत और तुष्टिकरण की राजनीति सबसे ज्यादा कांगे्रस ने ही की है। माना जा सकता है कि देश में समस्याएं हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि रोजगार नहीं है। राज्यों के स्तर पर जो नौकरियां दी जा रही हैं, वे क्या हैं? मोदी सरकार के ब्लू पिं्रट पर निजी क्षेत्र आने वाले कुछ महीनों में करीब आठ करोड़ नौकरियां देगा या साथ में रोजगार मुहैया कराएगा। बेशक किसान आज भी आत्महत्याएं कर रहे हैं, लेकिन क्या यह मोदी सरकार की ही देन है? दरअसल राहुल गांधी वही बोलेंगे, जो उनके अधकचरे सलाहकार उन्हें लिख कर देंगे या बताएंगे। अभी राहुल को भारत का राष्ट्रीय नेता बनने में वक्त लगेगा। बहरहाल महत्त्वपूर्ण सवाल तो यह है कि विदेशी जमीं पर देश के खिलाफ बोला जाए या नहीं। यह नेताओं को अपने विवेक और आत्ममंथन से तय करना है।


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