जगजीत ने गजल को दिया नया आयाम

By: Feb 4th, 2018 12:10 am

जगजीत सिंह  का जन्म 8 फरवरी, 1941 को हुआ। बेहद लोकप्रिय अत्यंत मधुर है और उनकी आवाज संगीत के साथ खूबसूरती से घुलमिल जाती है। खालिस उर्दू जानने वालों की मिलकियत समझी जाने वाली, नवाबों-रक्कासाओं की दुनिया में झनकती और शायरों की महफिलों में वाह-वाह की दाद पर इतराती गजलों को आम आदमी तक पहुंचाने का श्रेय अगर किसी को पहले पहल दिया जाना हो तो जगजीत सिंह का ही नाम जुबां पर आता है। उनकी गजलों ने न सिर्फ उर्दू के कम जानकारों के बीच शेर’ ओ-शायरी की समझ में इजाफा किया बल्कि गालिब, मीर, मजाज, जोश और फिराक जैसे शायरों से भी उनका परिचय कराया। जगजीत सिंह को सन् 2003 में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। फरवरी 2014 में आपके सम्मान व स्मृति में दो डाक टिकट भी जारी किए गए।

बहुतों की तरह जगजीत जी का पहला प्यार भी परवान नहीं चढ़ सका। अपने उन दिनों की याद करते हुए वे कहते हैं, एक लड़की को चाहा था। जालंधर में पढ़ाई के दौरान साइकिल पर ही आना-जाना होता था। लड़की के घर के सामने साइकिल की चैन टूटने या हवा निकालने का बहाना कर बैठ जाते और उसे देखा करते थे। बाद में यही सिलसिला बाइक के साथ जारी रहा। पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं थी। कुछ क्लास में तो दो-दो साल गुजारे जालंधर में ही डीएवी कालेज के दिनों गर्ल्स कालेज के आसपास बहुत फटकते थे। एक बार अपनी चचेरी बहन की शादी में जमी महिला मंडली की बैठक में जाकर गीत गाने लगे थे। पूछे जाने पर कहते हैं कि सिंगर नहीं होते तो धोबी होते। पिता के इजाजत के बगैर फिल्में देखना और टॉकीज में गेट कीपर को घूंस देकर हॉल में घुसना आदत थी।

संगीत का सफर

बचपन में अपने पिता से संगीत विरासत में मिला। गंगानगर में ही पंडित छगन लाल शर्मा के सान्निध्य में दो साल तक शास्त्रीय संगीत सीखने की शुरुआत की। आगे जाकर सैनिया घराने के उस्ताद जमाल खान साहब से ख्याल, ठुमरी और धु्रपद की बारीकियां सीखीं। पिता की ख्बाहिश थी कि उनका बेटा भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाए, लेकिन जगजीत पर गायक बनने की धुन सवार थी। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान संगीत में उनकी दिलचस्पी देखकर कुलपति प्रोफेसर सूरजभान ने जगजीत सिंह जी को काफी उत्साहित किया। उनके ही कहने पर वे 1965 में मुंबई आ गए। यहां से संघर्ष का दौर शुरू हुआ। वे पेईंग गेस्ट के तौर पर रहा करते थे और विज्ञापनों के लिए जिंगल्स गाकर या शादी-समारोह वगैरह में गाकर रोजी- रोटी का जुगाड़ करते रहे। 1967 में जगजीत जी की मुलाकात चित्रा जी से हुई। दो साल बाद दोनों 1969 में परिणय सूत्र में बंध गए।

गुजरा जमाना

जगजीत सिंह फिल्मी दुनिया में पार्श्वगायन का सपना लेकर आए थे। तब पेट पालने के लिए कालेज और ऊंचे लोगों की पार्टियों में अपनी पेशकश दिया करते थे। उन दिनों तलत महमूद, मोहम्मद रफी साहब जैसों के गीत लोगों की पसंद हुआ करते थे। रफी-किशोर-मन्नाडे जैसे महारथियों के दौर में पार्श्व गायन का मौका मिलना बहुत दूर था। जगजीत जी याद करते हैं, संघर्ष के दिनों में कालेज के लड़कों को खुश करने के लिए मुझे तरह-तरह के गाने गाने पड़ते थे क्योंकि शास्त्रीय गानों पर लड़के हूट कर देते थे। तब की मशहूर म्यूजिक कंपनी एचएमवी हिज मास्टर्स वॉयस को लाइट क्लासिकल ट्रेंड पर टिके संगीत की दरकार थी। जगजीत जी ने वही किया और पहला एलबम ‘द अनफॉरगेटेबल्स 1976 हिट रहा। जगजीत जी उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, उन दिनों किसी सिंगर को एलपी लॉग प्ले डिस्क मिलना बहुत फख्र की बात हुआ करती थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि सरदार जगजीत सिंह धीमान इसी एलबम के रिलीज के पहले जगजीत सिंह बन चुके थे। बाल कटाकर असरदार जगजीत सिंह बनने की राह पकड़ चुके थे। जगजीत ने इस एलबम की कामयाबी के बाद मुंबई में पहला फ्लैट खरीदा था।

आम आदमी की गजल

जगजीत सिंह ने गजलों को जब फिल्मी गानों की तरह गाना शुरू किया तो आम आदमी ने गजल में दिलचस्पी दिखानी शुरू की, लेकिन गजल के जानकारों की भौहें टेढ़ी हो गईं। खासकर गजल की दुनिया में जो मयार बेगम अखतर, कुंदनलाल सहगल, तलत महमूद, मेहदी हसन जैसों का था।। उससे हटकर जगजीत सिंह की शैली शुद्धतावादियों को रास नहीं आई। दरअसल यह वह दौर था जब आम आदमी ने जगजीत सिंह, पंकज उद्धास सरीखे गायकों को सुनकर ही गजल में दिल लगाना शुरू किया था। दूसरी तरफ परंपरागत गायकी के शौकीनों को शास्त्रीयता से हटकर नए गायकों के ये प्रयोग चुभ रहे थे।

आरोप लगाया गया कि जगजीत सिंह ने गजल की प्योरिटी और मूड के साथ छेड़खानी की, लेकिन जगजीत सिंह अपनी सफाई में हमेशा कहते रहे कि उन्होंने प्रस्तुति में थोड़े बदलाव जरूर किए,लेकिन लफ्जों से छेड़छाड़ बहुत कम किया। फिल्मी सफरनामा 1981 में रमन कुमार निर्देशित ‘प्रेमगीत’ और 1982 में महेश भट्ट निर्देशित ‘अर्थ’ को भला कौन भूल सकता है।

सम्मान और पुरस्कार

जगजीत सिंह को सन् 2003 में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।


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