धन्यवाद दलाईलामा जी

By: Mar 31st, 2018 12:05 am

हिमाचल में महामहिम दलाईलामा का घर केवल पत्थरों के बीच कोई छत नहीं, बल्कि आधुनिक संसार बसाने के अनेक मूलमंत्रों का एक वांछित स्रोत है। साठ साल के रिश्तों का गवाह और इसीलिए लिटल ल्हासा के नाम से विख्यात मकलोडगंज अपनी रूह में तिब्बती या बौद्ध आत्मा के साथ रू-ब-रू होता है। थैंक यू इंडिया की इबारत लिखने की जद्दोजहद में एक समुदाय, जो प्रायः दलाईलामा की विश्वस्तरीय पहचान में संरक्षित है। ज्ञान महासागर के तट पर खड़ा मकलोडगंज, अतीत से निकल कर तिब्बती आभा में डूब जाता है, तो सामने विश्व शांति की पताका का होना प्रतिष्ठित करता है। पर्वतीय राज्य में जीते जागते बुद्ध की संगत में पाने को बहुत कुछ था, लेकिन हिमाचल ने केवल आर्थिकी चलाने के लिए प्रायः दर्शन किए। जो शख्सियत भारत को गुरु मानती है और जीवन की संवेदना में भारत दर्शन की विश्वभर में प्रचारक है, उसका आभार हमें भी तो प्रकट करना चाहिए। यह इसलिए कि इससे पहले अहिंसा के भारतीय मार्ग पर इतनी लंबी यात्राएं नहीं हुईं। आज दलाईलामा केवल तिब्बती संघर्ष के प्रतीक नहीं, बल्कि अहिंसा के भारतीय स्वरूप हैं। भारतीय मूल्यों का साक्षात दर्शन उनसे बेहतर हो नहीं सकता और इस तरह वह हमारी मान्यताओं का जीवंत क्षितिज हैं। यह दीगर है कि इन साठ सालों के तिब्बती संघर्ष में हमने अपने बुनियादी अर्थ नहीं ढूंढे और न ही लोकतांत्रिक अधिकारों की कीमत जानी। साठ सालों से अपने विस्थापन के फ्रेम पर भारत का चित्र चस्पां करके दलाईलामा ने संसार को बता दिया कि विश्व शांति के रंग क्या होते हैं। सहिष्णुता, बसुधैव कुटुंबकम और सह अस्तित्व के भारतीय मूल्यों की अमानत में विश्व शांति की जो धाराएं निकलीं, क्या हमारे अपने घर में सुरक्षित हैं। हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में दलाईलामा की उपस्थिति, ऐसी ईश्वरीय शक्ति है जो पर्वत के संबोधन की मिलकीयत बन जाती है। विश्व शांति के नोबेल पुरस्कार विजेता का घर हमारे बीच होना, मानवता का हमारे प्रति सौहार्द है, तो प्रश्न यह भी कि इस मौजूदगी को हमने कब श्रेय दिया। मकलोडगंज, मनाली, डलहौजी, शिमला व कुछ अन्य स्थानों में तिब्बती समुदाय की उपस्थिति से हमारे पर्यटन का कोरम पूरा होता गया, लेकिन इस छबील के ठीक आगे हम प्यासे रहे। विस्थापन से जीवन बचाने और सांस्कृतिक परिदृश्य में परंपरावादी होने की जो संगत दलाईलामा लाए, हमने इससे क्या सीखा। सभ्यता और संस्कृति के हमारे फलक कहीं खाली दिखाई देते हैं, जहां साठ साल पहले दलाईलामा निर्वासित होकर मकलोडगंज के बाशिंदे बने। इस दौरान ब्रिटिश काल का यह कस्बा पूरी तरह तिब्बती हो गया, तो विस्थापन के झरोखे ने इसे लघु ल्हासे की तरह देखना शुरू कर दिया। देश का एकमात्र स्थान जहां तिब्बत की विरासत जिंदा है, गलियों में ‘ओम पद्म संभव’ के श्लोकोच्चारण के बीच एक पूरी सरकार भारतीय लोकतंत्र का अनुसरण करती है। तिब्बती परंपराओं और जीवन के अद्भुत रंगों का संगम रोज सुबह तिलक लगाता है, तो उगते सूरज के साथ आजादी की किरणों की अनुभूति में यह कस्बा अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी उद्घोष करता है। सारे विश्व के मंच यहां आकर झुकते हैं, क्योंकि मकलोडगंज में दलाईलामा विद्यमान हैं। एक करिश्मा जो हमारे वजूद के नजदीक भाईचारे और शांति के दीप की तरह रोशन है, लेकिन हमने इस सफर में अपने कदम नहीं चुने। हिमाचल अगर चाहता तो दिल से जुड़े महामहिम, जुबान से भी हमारे राजदूत बन जाते। हम चाहते तो कालचक्र जैसे समारोहों के जरिए हिमाचल में लगातार तप हो जाते। हिमाचल के लाहुल-स्पीति व किन्नौर की बौद्ध परंपराओं के साथ दलाईलामा की उपस्थिति के ये साठ साल, हमारे सांस्कृतिक पक्ष की बड़ी वकालत बन चुके हैं, फिर भी कहीं हमने इस संत को पूरी अहमियत नहीं दी। बेशक नोबेल शांति पुरस्कार मिलने पर कुछ वर्ष हिमालयन उत्सव चला, लेकिन क्षेत्रीय राजनीति ने बीच में इसे भी रोक दिया। क्या दलाईलामा की इस विरासत से हिमाचल को प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ नहीं मिला। न जाने कितने पर्यटक इस दृष्टि से आते हैं कि हिमाचल में तिब्बती संस्थाएं और बौद्ध परंपराएं आकर्षित करती हैं। आभार इसलिए क्योंकि दलाईलामा की आभा से निकले संदेश हमारे इर्द-गिर्द के वातावरण को पवित्र बनाते हैं और फिर हमें यह विश्वास रहता है कि इस युग को अपने धर्मशास्त्र व दर्शनशास्त्र से सुरक्षित बनाने वाली ईश्वरीय ताकत हमारे अपने वजूद के करीब रहती है। संवेदना की शुद्धता में दलाई लामा को जानना है, तो हमें अपने घर के द्वार पर जल रहे असंख्य नफरत के अलाव बुझाने होंगे।


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