फिर तीसरे मोर्चे का विचार

By: Mar 7th, 2018 12:05 am

भारतीय राजनीति के इतिहास में तीसरा मोर्चा टूटने के लिए बनता रहा है। उसे फिर बनाया जाता रहा है, ताकि उसे तोड़-फोड़ कर ध्वस्त किया जा सके। टूटन और बिखराव ही तीसरे मोर्चे की नियति रहे हैं। अब एक बार फिर तीसरे मोर्चे का विचार उभरा है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव और हैदराबाद के सांसद ओवैसी ने इच्छा जताई है कि भारतीय राजनीति में गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस एक मोर्चा होना चाहिए, जिसके तले विपक्ष के अन्य दल लामबंद हो सकें। सियासत की एक जमात में ‘मोदी लहर’ से खलबली मची है, तो दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को निशाना बनाया जा रहा है। जब भी ऐसे मोर्चे बनाए गए हैं, वे सभी गैर-कांग्रेसी रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि सरकारें कांग्रेस के बाहरी समर्थन से ही बनती रही हैं। पहली महत्त्वपूर्ण, गैर-कांग्रेसी केंद्र सरकार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में 1977 में बनी। वह आपातकाल के खिलाफ  राजनीतिक और सार्वजनिक प्रतिक्रिया की मिसाल थी। जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर जनता पार्टी का गठन हुआ था। तब उसमें जनसंघ ने भी विलय किया था। वामपंथी ताकतें भी साथ रहीं। लेकिन वह प्रयोग दो साल में ही नाकाम हो गया। नेताओं की महत्त्वाकांक्षाएं टकराती रहीं, अहम आड़े आते रहे, साझा एजेंडे के बावजूद सभी दल एकमत नहीं हुए। तत्कालीन गृहमंत्री चरण सिंह प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। नतीजतन जनता पार्टी दोफाड़ हुई। इंदिरा गांधी की रणनीति कारगर साबित हुई। कांग्रेस के समर्थन से चरण सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए, लेकिन मात्र 5 महीने के कार्यकाल में कभी भी संसद का चेहरा नहीं देखा। उसके बाद जनता पार्टी के कई टुकड़े हुए। जनसंघ वाला हिस्सा भाजपा के नाम से 1980 में गठित हुआ। चरण सिंह ने लोकदल का गठन किया। जनता पार्टी का नाम ही शेष रहा, जिसके अंतिम नेता डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी थे। अब उन्होंने भी भाजपा में विलय कर लिया है। एक क्रांतिकारी, राजनीतिक प्रयोग की इससे दुर्भाग्यपूर्ण मौत नहीं हो सकती। फिर बोफोर्स तोप घोटाले के मुद्दे पर 1988 में ‘जनमोर्चा’ के तहत आंदोलन शुरू हुआ। तत्कालीन वित्त मंत्री वीपी सिंह ने राजीव गांधी सरकार से इस्तीफा दिया और आंदोलन के नायक बने। 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा बैनर तले वीपी सिंह सरकार बनी, जिसे भाजपा और वामदलों ने एक साथ बाहर से समर्थन दिया। दरअसल उसे राष्ट्रीय मोर्चा-वाम मोर्चा की सरकार भी कहते थे। हालांकि 197 सीटों के साथ कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी थी और राष्ट्रीय मोर्चा को 143 सीटें ही हासिल हुईं। भाजपा के 86 सांसद जीत कर लोकसभा में आए थे। चूंकि कांग्रेस की 404 सीटों में से 207 सीटें कांग्रेस ने हारी थीं, लिहाजा राजीव गांधी ने अपनी नैतिक हार समझी और वीपी सिंह सरकार के लिए रास्ता छोड़ दिया। वह सरकार 11 महीने ही चली और अपने अंतर्विरोधों के कारण ढह गई। जनता दल का जो धड़ा चंद्रशेखर-देवीलाल के नेतृत्व में टूटा था, उसने कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई। हरियाणा के सिपाहियों द्वारा राजीव गांधी के आवास 10, जनपथ की जासूसी के आरोप पर सरकार से समर्थन वापस ले लिया गया। नतीजतन चंद्रशेखर सरकार 4 महीने में ही गिर गई। उसके बाद तीसरे मोर्चे का एक और प्रयोग 1996 में किया गया। तब संयुक्त मोर्चा में 13 दल शामिल हुए और अप्रत्याशित फैसले में कर्नाटक के देवगौड़ा को प्रधानमंत्री चुना गया। इस सरकार का पतन हुआ, तो इंद्रकुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनाकर एक और सरकार बनाई गई। संयुक्त मोर्चा की दोनों सरकारें कांग्रेस के समर्थन से बनी थीं।  फिर मई,1998 में पहली बार लोकसभा में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बना और वह सरकार 2004 तक चली। उसी गठबंधन का आज नेतृत्व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। हालांकि गठबंधन के दलों की संख्या बहुत बढ़ गई है। मोदी सरकार के तहत प्रचारित किया जा रहा है कि संविधान खतरे में है। अघोषित आपातकाल की स्थितियां हैं। अभिव्यक्ति की आजादी इतनी है कि विपक्षी नेतागण प्रधानमंत्री मोदी को ‘गंगू तेली’, ‘नीच’, ‘कातिल’, ‘हत्यारा’, ‘रावण’ न जाने कितने विशेषणों से संबोधित करते हैं। टीवी चैनलों और अखबारों में प्रधानमंत्री को खूब गरियाया जाता है। आपातकाल कहां है और उसके मायने क्या हैं? विचार उभरा है कि यदि मोदी-शाह की जोड़ी को चुनावों में हराना है, तो तीसरा मोर्चा एक बार फिर बनाना चाहिए। कुछ विपक्षी दल राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। यह मोर्चा किन आधारों पर बनेगा, नेतृत्व कौन करेगा, साझा एजेंडा क्या होगा, फिलहाल ये मुद्दे अभी अनिश्चित हैं। करीब 80 फीसदी राजनीति प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की झोली में है। छोटे-छोटे बरसाती दल उन्हें क्या चुनौती दे सकेंगे, अभी यह भी सवाल है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की छवि और हैसियत भी क्षेत्रीय और हाशिए वाली है। उन्हें कभी भी राष्ट्रीय नेता नहीं माना गया। ऐसे में कथित तीसरे मोर्चे की शक्ल कैसी बनती है, यह देखना दिलचस्प होगा।


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