बाबा साहब भी ‘राम जी’

By: Mar 31st, 2018 12:02 am

बाबा साहब का असली नाम ‘भीमराव रामजी अंबेडकर’ है। इसके कई साक्ष्य हैं। संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के तौर पर संविधान की प्रति पर इसी नाम के हिंदी में हस्ताक्षर किए गए हैं। इस प्रति को संसद की लाइब्रेरी में देखा जा सकता है। संविधान की 8वीं अनुसूची में जो नाम दर्ज है, उसमें भी ‘राम जी’ शब्द का प्रयोग किया गया है। 1952 के ‘भारतीय राजपत्र’ में भी इसी नाम का उलेख है। इन साक्ष्यों को मीडिया में स्पष्ट रूप से सार्वजनिक किया जा रहा है। अव्वल तो उप्र के राज्यपाल राम नाइक को यह सुझाव मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री को देना ही नहीं चाहिए था कि बाबा साहब के नाम ‘भीमराव रामजी अंबेडकर’ को ही प्रचलन में लाना चाहिए, क्योंकि नाइक एक संवैधानिक पद पर आसीन हैं। यदि राज्यपाल का सुझाव उप्र की योगी सरकार ने स्वीकार कर ही लिया है, तो यह चीखा-चिल्ली नहीं होनी चाहिए थी कि भाजपा ने बाबा साहब के नाम में भी ‘राम’ जोड़ दिया। वह ‘राम’, जिनका नाम और प्रचार सांप्रदायिक करार दिया जाता रहा है। वह ‘राम’, जिनका भव्य मंदिर अयोध्या में अभी तक नहीं बना है। वह ‘राम’, जिन्हें बाबा साहब हाड़-मास का एक सामान्य आदमी मानते थे और तुलसीदास के पात्र की तरह वह ‘पुरुषोत्तम’ नहीं थे। वह ‘राम’, जिनका संदर्भ आते ही एक सामाजिक-राजनीतिक तबका नफरत करने लगता है। लेकिन बाबा साहब के इस मूल नामकरण पर भी दलित राजनीति के पुराने पन्ने पलटने शुरू हो गए हैं। बसपा प्रमुख मायावती ने भाजपा को दलित-विरोधी मानते हुए इस नाम को भी ‘राजनीति’ करार दिया है और 2019 के चुनावी मंसूबों से जोड़ा है। अधिकतर गैर-भाजपा दल, जिनमें कांग्रेस भी शामिल है, भाजपा को अंबेडकर-विरोधी मानते हुए बाबा साहब की राजनीतिक विरासत को अपनी बपौती मानते रहे हैं। हकीकत इससे अलग है। लोकसभा की 66 आरक्षित सीटों में से 40 पर भाजपा ने 2014 में जीत हासिल की थी। दलितों के लिए आरक्षित 60 फीसदी सीटों पर भाजपा काबिज है। सर्वाधिक दलित सांसद भाजपा के हैं। दलितों को वोट बैंक मानकर राजनीति करने वालों से पूछा जाए कि आखिर देश के तमाम दलित उनके नेतृत्व में लामबंद क्यों नहीं हैं? मायावती, रामविलास पासवान, प्रकाश अंबेडकर, अठावले, उदित राज आदि दलित नेताओं की पार्टियों में दलितों के समुदाय-विशेष ही मौजूद क्यों हैं? इसलिए कि ये दलित नेता जातीय आधार पर ही नेता हैं। कोई जाटवों का, कोई वाल्मीकियों का, कोई पासवानों का ही नेता है, जबकि बाबा साहब सर्वांगीण तौर पर दलितों के नेता थे। डा. भीमराव राम जी अंबेडकर की एक लंबी-चौड़ी राजनीतिक विरासत है। बाबा साहब ने वित्त आयोग का सुझाव दिया था। भारतीय रिजर्व बैंक और निर्वाचन आयोग की स्थापनाओं के पीछे बाबा साहब की ही सोच थी। देश भर में ‘रोजगार दफ्तर’ अंबेडकर ने ही स्थापित कराए। दामोदर घाटी और हीराकुड बांध परियोजनाओं के पीछे बाबा की ही ‘दृष्टि’ थी। शायद किसी भी दलित नेता को इस विरासत की सम्यक जानकारी नहीं होगी! सिर्फ दलितों के नाम पर इन नेताओं को छाती पीटना ही आता है। कुछ दलित चेहरे एनडीए में ही ऐसे हैं, जो बाबा साहब के नामकरण से नाराज हैं और उलटे-सीधे बयान दे रहे हैं। भाजपा ने नए नामकरण की बलात कोशिश नहीं की है। बाबा का नाम उनके माता-पिता ने जो रखा था, उसे ही सही तरीके से सामने लाया जा रहा है। ‘राम जी’ बाबा साहब के पिता के नाम का शुरुआती शब्द है। मोदी सरकार और भाजपा के लिए बाबा साहब का नाम इस्तेमाल करने पर पाबंदी नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार 26 नवंबर को ‘संविधान दिवस’ घोषित किया। इस दिन संसद में संविधान, बाबा साहब के योगदान, गणतांत्रिक मूल्यों पर चर्चा होती है। यह शुरुआत भी मोदी सरकार ने की। गौरतलब है कि संविधान को इसी दिन 1949 में ग्रहण कर लिया गया था, लेकिन लागू 1950 में हुआ। बाबा की जन्मस्थली महू में रैली को प्रधानमंत्री मोदी ने संबोधित किया। बाबा साहब के नाम पर सिक्के जारी किए गए, लेकिन कितनी वीभत्स राजनीति है कि नेहरू-अंबेडकर कालखंड के पुराने चिट्ठों को भी सार्वजनिक किया जा रहा है, ताकि दोनों नेताओं के तनावग्रस्त रिश्तों का खुलासा किया जा सके। दरअसल भाजपा या उप्र की योगी सरकार ने बाबा साहब के नाम में कुछ नहीं जोड़ा। सिर्फ यह किया है कि जो असली नाम था, उसे धारण किया है और अब आगे से वही नाम प्रचलन में रहेगा। बेशक इस नामकरण को भगवान श्रीराम से जोड़ कर व्याख्या की जाए, बार-बार दलितों के उत्पीड़न का उल्लेख किया जाए, सहारनपुर और कासगंज के सांप्रदायिक उथल-पुथल का संदर्भ  दिया जाए, लेकिन बाबा साहब वही रहेंगे, जो मौलिक और मूल रूप में वह रहे हैं।


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