बोलियों से हिमाचली भाषा तक

By: Mar 30th, 2018 12:05 am

बोली से हिमाचली भाषा बनने की कवायद में कहीं तो हम पिछड़ते रहे। हम बोलियों के बिछौने पर सांस्कृतिक अस्मिता के हिमाचल को पूर्ण होता  तभी देख पाएंगे, अगर प्रदेश की गूंज में एक भाषा का निरूपण हो। आश्चर्य यह कि हिमाचल को हिंदी राज्य बनाते हुए यह नहीं सोचा गया कि इसके कारण हमारी अपनी जुबान का क्या होगा। बेशक हमसे कहीं बेहतर पड़ोसी पंजाब में लिखा गया, तो साहित्य में हिंदी की ऊर्जा वहां भी हमसे कहीं अधिक दिखाई दी। प्रदेश के व्यवहार में हिंदी से कहीं अधिक अंगे्रजी को समझने की कोशिश होती है, तो राज्य का भाषाई अनुराग जिस सामाजिक उत्कंठा पर खड़ा है, उसे भी समझना होगा। हिमाचली अस्तित्व में भाषा के सेतु अगर पैदा किए होते, तो सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का उद्गार सर्वोपरि होता। इसके विपरीत बोलियों की माटी से क्षेत्रवाद के घरौंदे बना डाले और जब कभी राज्य स्तरीय भाषा का उद्गम ढूंढा गया तो तर्क इसकी-उसकी तक ही उलझे रहे। यह दीगर है कि अब यदा-कदा चर्चा पहाड़ी बोलियों के झुंड से निकल कर हिमाचली भाषा के शिखर पर होने लगी है। हिमाचली भाषा का चेहरा देखना है, तो उन गायकों की मेहनत को परखना होगा जो सारे हिमाचल की थाती बन जाते हैं। बेशक पहाड़ी सप्ताह के आयोजन में बोलियों के संदर्भ और उन्हें बचाने की संवेदना पुरजोर कोशिश करती रही, लेकिन कागज के पन्नों पर लिखे शब्द ध्वनि पैदा नहीं करते। हिमाचल के अपने या निजी विश्वविद्यालयों में जाकर सुनें कि वहां यू ट्यूब पर चलते हिमाचली गाने की तान पर बाहरी राज्यों के छात्र क्यों झूम रहे हैं। क्यों चंबा से निकला रूमेल सिंह का गीत ‘मेरा खिन्नू बड़ा उस्ताद हो’ या शिमला के विक्की राजटा के स्वर में, ‘डूंगे-डूंगे नालुए’ पर छात्र समुदाय हिमाचल के अर्थ समझ लेता है। आप अगर सुनेंगे नहीं, तो बोलियां कभी भी भाषा की पालकी पर सवार नहीं होंगी। सिरमौरी में जब डाक्टर केएल सहगल, डा. मदन या रघुवीर चौहान गाते हैं, तो हिमाचली भाषा के ये स्रोत कांगड़ा में बखूबी अपने हो जाते हैं। अर्थ और भाव से भाषाई संरचना को अगर महसूस करना है, तो लगातार ठाकुरदास राठी, करनैल राणा, कुलदीप शर्मा, नरेंद्र ठाकुर, नीरू चांदनी या सुनील राणा सरीखे कई चर्चित गायक अपने हुनर की इबादत में मीठी बोलियों से हिमाचली भाषा के सुर, ताल व लय पैदा कर रहे हैं। जब विभिन्न बोलियों के संगम से हिमाचली गीत-संगीत तैयार हो सकता है, तो शब्दों की बारात से भाषाई दुल्हन का शृंगार क्यों नहीं होता। जो मेहनत हिमाचली गायक कर रहे हैं, क्या उतने सरोकार लेखकीय व्यस्तता ने साबित किए। क्या हिमाचली कलम बोलियों की स्याही से पूरी तरह रंगने की कोशिश कर रही है या केवल सभा, संगोष्ठियों में अपनी लिखावट पर श्रेय लूट रही है। क्या हम भाषाई आधार पर हिमाचलियत के परवाने बने। पंजाबियत को अगर महसूस करना है, तो भाषाई जड़ों से घुलना-मिलना पड़ता है। वहां जो लिखा गया, उसे पढ़ा और सुना भी गया। हिमाचल में लेखक समुदाय ने बेशक कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग तथा अकादमी पूर्णरूपेण कब्जा किया, लेकिन भाषा के अर्थ में खुद को ही सीढ़ी पर चढ़ाया। इसलिए कवि सम्मेलन या साहित्यिक संवाद तो निरंतर होते हैं, लेकिन लोक कला समारोहों की आवाज सुनाई नहीं देती। हिमाचली भाषा को हकीकत बनाने के लिए केवल एक उन्नयन बोर्ड चाहिए, ताकि एक बड़ी मुहिम तैयार की जा सके। हिमाचली भाषा उन्नयन बोर्ड विभिन्न आयोजनों, सम्मेलनों, सेमिनारों तथा मंचों के जरिए हिमाचली बोलियों का सरगम-सहमति और स्वीकार्यता का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। अगर सिरमौर में पैदा हुआ पार्श्व गायक मोहित चौहान पूरे देश के सामने हिमाचली मिट्टी का संगीत चंबा से चुन सकता है, तो भाषाई संगम के हिमाचल को खुद पर फख्र करने के लिए हिमाचली भाषा का ताज भी तो चाहिए। हिमाचली भाषा की एकरूपता में संस्कृति-परंपरा से सुने और समझे को सिर्फ आकार भर देना है।


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