संसदीय प्रणाली : दोनों सदनों को प्राप्त थीं समान शक्तियां

By: Mar 21st, 2018 12:05 am

 

गतांक से आगे…

भारत सरकार अधिनियम, 1919:

1920 में परिषद के कुल मतदाता केवल 17, 644 थे और विधानसभा के 904,746। परिषद की सामान्य कार्यावधि पांच वर्षों की थी तथा विधानसभा की तीन वर्षों की। गवर्नर जनरल दोनों में से  किसी भी सदन को उसकी पूर्ण कालावधि समाप्त होने से पूर्व ही भंग कर सकता था। वह विशेष परिस्थितियों में उनकी सामान्य कार्यावधि बढ़ा भी सकता था। दोनों सदनों को समान शक्तियां प्राप्त थीं, सिवाय इसके कि केवल विधानसभा ही आपूर्ति (सप्लाइज) की स्वीकृति दे सकती थी अथवा रोक सकती थी। 1919 के अधिनियम के अधीन उस प्रणाली के अनुसार जो ‘द्वितंत्र’ (डाइआर्की) के नाम से प्रसिद्ध हुई, प्रांतों में तो आंशिक रूप से उत्तरदायी सरकार स्थापित की गई परंतु केंद्र में उत्तरदायित्व का कोई तत्त्व नहीं था और गवर्नर-जनरल-इन-कौंसिल का भारत के लिए केवल सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के प्रति और उसके द्वारा ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायित्व बना रहा। केंद्रीय विधानमंडल का स्वरूप यद्यपि पहली विधान परिषदों की अपेक्षा प्रातिनिधिक था और उसे पहली बार आपूर्तियों की स्वीकृति देने की शक्ति प्राप्त थी तथापि उसे सरकार को बदलने की शक्ति प्राप्त नहीं थी। विधान बनाने तथा वित्तीय नियंत्रण के क्षेत्र में भी उसकी शक्तियां सीमित थीं और  वे गवर्नर जनरल की सर्वोपरि शक्तियां के अध्यधीन थीं। इस प्रकार, यद्यपि संपूर्ण ब्रिटिश इंडिया के लिए, भारत में सम्र्राट की ब्रिटिश प्रजा एवं सेवियों के लिए तथा ब्रिटिश इंडिया में और उससे बाहर ब्रिटिश इंडिया की सारी प्रजा के लिए केद्रीय विधानमंडल की शक्ति को दोहराया गया परंतु उसकी अनेक महत्त्वपूर्ण सीमाएं बनी रहीं, जो या तो ब्रिटिश संसद की प्रभुसत्ता को ज्यों की त्यों बनाए रखने के लिए निर्धारित की गई थीं या फिर गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद की प्रभुसत्ता बनाए रखने के लिए । मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय विधानमंडल को ब्रिटिश इंडिया से संबंधित किसी भी संसदीय विधि में संशोधन करने या उसका निरसन करने या ब्रिटिश संसद के प्राधिकार को छूने वाला कोई कार्य करने की शक्ति प्राप्त नहीं थी।


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