हिमाचली सिनेमा को पालिसी बनाने की जरूरत

By: Mar 14th, 2018 12:06 am

कंचन शर्मा

लेखिका, शिमला से हैं

आज अगर हम पंजाब, केरल, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु व महाराष्ट्र के क्षेत्रीय सिनेमा की बात करें तो उन प्रदेशों की फिल्म पालिसी होने से ही राष्ट्र स्तर पर उनके क्षेत्रीय सिनेमा की पहचान है। इसी तरह से हिमाचल में भी सरकार द्वारा फिल्म पालिसी बनाई जाती है तो हिमाचली फिल्मों में निवेशक बेधड़क निवेश करेंगे…

जिस तरह से सांस्कृतिक, धार्मिक, प्राकृतिक व भाषायी विविधताओं के मोतियों को एक सूत्र में पिरोकर भारत देश की कल्पना साकार हुई है, उसी तरह हिमाचल प्रदेश भी भिन्न-भिन्न जिलों की विविधताओं के बाद भारत ही नहीं अपितु विश्व में भी अपनी पहचान बनाए हुए है। पर दुःख की बात यह है कि हिमाचल प्रदेश अभी न तो ठोस पर्यटन नीति बनाकर पर्यटन उद्योग को स्थापित कर पाया है और न ही कश्मीर व स्विटजरलैंड की तर्ज पर हालीवुड और बालीवुड को यहां शूटिंग करने के लिए सहज कर पाया है। यहां तक कि अभिनय, संगीत व निर्देशन की कला भी धीरे-धीरे प्रदेश से पलायन कर चुकी है, क्योंकि हिमाचली प्रोड्यूसर व निर्देशकों के लिए यहां फिल्म पालिसी न होने के कारण अपना पैसा डूबने व दर-दर की ठोकरें खाने के अलावा और कुछ नहीं मिलता। उस पर आज तक किसी भी प्रदेश सरकार ने हिमाचली भाषा की लिपि बनाने के लिए कोई ठोस कार्य नहीं किया जिसकी वजह से आज भी संविधान की आठवीं अनुसूची में हिमाचली भाषा शामिल नहीं है। हिमाचल में हर जिले की अपनी बोली है।

कुल मुख्य बारह बोलियों को मिलाकर एक लिपि बनाना हालांकि थोड़ा मुश्किल व लंबा कार्य है। जरूरत है सरकार के त्वरित आदेश व भाषा विभाग की सक्रियता की। हिमाचल की किसी भी बोली में गाए जाने वाले हिमाचली गानों की धुन पर हर हिमाचली थिरकता है व बोल समझता है। ऐसे में हिमाचली दर्शकों को भला किसी भी हिमाचली बोली में फिल्म समझ क्यों नहीं आएगी। हिमाचली सिनेमा का मूलभूत आधार तो पहाड़ी भाषा या यहां की बोलियों का रजिस्टर होना है। प्रश्न उठता है हिमाचल में फिल्म-सिटी बनाने का, तो हिमाचल प्रदेश स्वयं में एक फिल्म सिटी है। बड़े-बड़े निवेशकों की यहां फिल्म सिटी बनाने के लिए लार टपकती है, लेकिन उससे पहले कि बाहर के निवेशक आकर यहां पर फिल्म-सिटी बनाकर यहां कब्जा करें, जरूरी है हिमाचल के युवाओं, कलाकारों के लिए फिल्म पालिसी बनाना जिससे वे हिमाचली सिनेमा को बड़े पर्दे पर पहचान दे सकें। प्रदेश के अग्रणी मीडिया ग्रुप ‘दिव्य हिमाचल’ ने पहली पहाड़ी फिल्म ‘फुलमू-रांझू’ बनाई। युवा प्रोड्यूसर, निदेशक अजय सकलानी ने विकट परिस्थितियों में पहाड़ी फिल्म ‘सांझ’ को बड़े पर्दे पर पहुंचा कर हिमाचली सिनेमा में इतिहास दर्ज किया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि वो राष्ट्रीय स्तर पर बिना भाषायी प्रमाण पत्र के अपनी फिल्म को जगह दे पाए, क्या उन्हें बड़े पर्दे पर पहली बार हिमाचली फिल्म लाने का सरकार से सम्मान मिला या उन्होंने दर-दर की ठोकरें खाकर स्वयं अपने इस सपने को साकार किया।

बड़ी दुखद स्थिति है कि हिमाचल में फिल्म पालिसी न होने से न केवल अजय ही नहीं बल्कि अन्य सभी निवेशक, निर्देशक हिमाचली फिल्म बनाने के लिए बहुत मुश्किलों का सामना करते हैं। उन्हें अपने ही प्रदेश में शूटिंग-साइट के लिए परमीशन लेने की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यही नहीं उन्हें लोकेशन के लिए भारी रकम जमा करवानी पड़ती है, जो खेद का विषय है। जबकि हिमाचल की खूबसूरती को बड़े परदे पर लाकर हिमाचल के पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। ये भी कहा जाता है कि हिमाचली फिल्म के दर्शक नहीं हैं जबकि ऐसा कुछ नहीं। हिमाचली फोक गाने की सीडी जब बाजार में धूम मचा सकती है तो हिमाचली फिल्म क्यों नहीं। दर्शक भारी तादाद में हैं लेकिन यहां थियेटर नहीं। यू ट्यूब व फेसबुक पर भले ही हिमाचल फिल्म के दर्शक हैं । उससे निवेशकों को दर्शक तो मिलते हैं लेकिन निवेश का प्रतिफल नहीं मिलता। लिहाजा हिमाचली फिल्म बनाना हिमाचली युवा कलाकारों के लिए भारी जोखिम का काम बन चुका है जो हिमाचली सिनेमा के लिए दुखद स्थिति है। अगर हम फिल्म सिटी बनाने की बात करते हैं तो फिल्म सिटी एक ऐसा स्थान होता है जहां पर फिल्म बनाने के लिए सभी तरह की सुविधाएं एक ही स्थान पर उपलब्ध होती हैं। पर फिल्म सिटी बनाने के लिए पैसा खर्च करने वाले निवेशक यकीनन प्रदेश के बाहर से ही आएंगे और फिर फिल्म सिटी पर उन्हीं का एकाधिकार होने से हिमाचल का स्थानीय निवेशक, कलाकार उन्हीं का मोहताज होगा। इसलिए फिल्म सिटी बनाने से पहले जरूरी है फिल्म पालिसी बनाना ताकि हिमाचली सिनेमा को एक पहचान मिले। उसके बाद फिल्म सिटी के बारे में सोचा जा सकता है। फिल्म पालिसी बनाने के लिए जरूरी है सबसे पहले हिमाचली बोलियों का रजिस्ट्रेशन व हिमाचली भाषा के रजिस्ट्रेशन के लिए हिमाचली लिपि का इजाद करना, हिमाचली फिल्म निर्माताओं को प्रदेश में बिना फीस दिए शूटिंग की इजाजत देना, सरकारी रेस्ट हाउस में शूटिंग टीम के ठहरने की व्यवस्था करना, अपनी क्षेत्रीय भाषा में फिल्म बनाने वालों को सबसिडी देना। झारखंड सरकार अपनी क्षेत्रीय भाषा में बनने वाली फिल्मों को पचास प्रतिशत तक की सबसिडी देती है, हिमाचल में जगह-जगह थियेटर बनाना, जिन्हें मॉल की शेप में निवेशकों को बनाने के लिए बुलाया जा सकता है, हिमाचली थियेटर में हिमाचली फिल्म को प्राइम टाइम देने का अधिकार देना, हिमाचल के प्राकृतिक झीलों, वादियों, बागानों, ऐतिहासिक जगहों पर पक्के रास्ते बनवाना ताकि यहां की मनोरम वादियों को शूट कर विश्व में हिमाचल का प्रचार-प्रसर हो। हिमाचल के बाहर के निर्माताओं के लिए सिंगल विंडो सिस्टम रखना ताकि उनकी परमिशन आदि की प्रक्रियाएं एक ही जगह सुनिश्चित हो। रास्तों के साथ, हैलिपेड्स व एअर पोर्ट्स की स्थापना ताकि बाहरी फिल्म निवेशकों की आवाजाही बढ़े। आज अगर हम पंजाब, केरल, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु व महाराष्ट्र के क्षेत्रीय सिनेमा की बात करें तो उन प्रदेशों की फिल्म पालिसी होने से ही राष्ट्र स्तर पर उनके क्षेत्रीय सिनेमा की पहचान है। वहां की क्षेत्रीय फिल्मों पर निवेशक दिल खोल कर पैसा लगाते हैं और वहां के कलाकार व कला फलीभूत हो रही है। इसी तरह से हिमाचल में भी सरकार द्वारा फिल्म पालिसी बनाई जाती है तो हिमाचली फिल्मों में निवेशक बेधड़क निवेश करेंगे।


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