हॉर्न के शोर से दूर

By: Mar 6th, 2018 12:05 am

ध्वनि प्रदूषण रोकने के अहम फैसले की बानगी में देखें, तो यह नागरिक समाज की आदतों पर एक टिप्पणी है। नो हॉर्न अभियान के तहत मंडी व शिमला शहरों में सर्वप्रथम माहौल बनाने तथा व्यवस्था में निरूपित करने की एक नई पहल शुरू करके सरकार, यातायात नियमावली को सामाजिक परिदृश्य में देख रही है। आदतों से जब शिष्टाचार और सामाजिक लक्ष्य टूटते हैं, तो सरकार का दायित्व बड़ा हो जाता है। यहां मसला केवल अनावश्यक हॉर्न बजाने तक नहीं देखना चाहिए, बल्कि सामाजिक तौर पर विकराल होती आदतों पर पहरे बैठाने का है। आश्चर्य यह कि सामाजिक विकास तथा आर्थिक समृद्धि के आईने में यह समझने की कोशिश नहीं हो रही कि सहअस्तित्व और प्राकृतिक सामंजस्य में इनसान की भूमिका कितनी घट गई है। बेशक कायदे-कानून पहले से मौजूद हैं, लेकिन हिमाचल इनकी अनुपालना करना भूल रहा है। कहने को टीसीपी अधिनियम मौजूद है, लेकिन फाइलें अवैध निर्माण से अटी पड़ी हैं। तीव्रता से सरकारी भूमि पर हो रहे अतिक्रमण से भी सामाजिक चरित्र की एक निर्लज्ज जागीर खड़ी हो गई। वाहनों की कतारें सरेआम सड़कों पर अड्डा जमा रही हैं, तो बाजार के हर छोर पर व्यापार का अतिक्रमण बढ़ रहा है। ऐसे में हर समस्या के समाधान में सामाजिक चेतना आवश्यक है। कौन पल-पल सिखाएगा कि शहरी डस्टबिन का सही इस्तेमाल कैसे करना है और किस तरह प्राकृतिक स्रोतों की रक्षा करनी है। बहरहाल बिगड़ैल हालात पर नई दृष्टि लेकर सरकारी फैसला आ रहा है, तो यह समझना पड़ेगा कि हॉर्न फ्री होने से यातायात में सामाजिक व्यवहार का तकाजा क्या होगा। बढ़ते वाहनों के शोर में गुम होती मानवीय संवेदना को पुनः सलीके से संवारने की अदा अगर नो हॉर्न अभियान है, तो वाहन चालकों की आदतों को परखने का यह संदेश और गहराई तक जाना चाहिए। हर दुर्घटना का मनोविज्ञान काफी हद तक वाहन चालकों के मानसिक असंतुलन को चित्रित करता है। सड़कों पर तीव्र गति पाने का उद्वेग और बहकते ट्रैफिक नियंत्रण के बीच, निरंकुश चालकों की शुमारी और खुमारी रोकनी होगी। खासतौर पर निजी बसों व टैक्सियों के भीतर समाई प्रतिस्पर्धा ने यातायात से उसके नियम व आदर्श छीन लिए। सिरफिरे वाहन चालकों के बीच माफिया सरीखे आचरण को समझें, तो हमारे जीवन के विरुद्ध कई यमदूत दौड़ रहे हैं। इससे भी पहले यह विचार करना होगा कि वाहनों की बढ़ती तादाद के साथ ट्रैफिक नियंत्रण के समाधान क्या रहे। केवल कुछ पुलिस जवानों की वर्दी बदलने से ट्रैफिक पुलिस को मुकम्मल नहीं माना जा सकता। पूरा ट्रैफिक नियंत्रण का ढांचा न केवल अति आवश्यक ट्रैफिक पुलिस की नफरी में इजाफा, बल्कि अतिआवश्यक उपकरण, अधोसंरचना तथा स्वतंत्र कार्यप्रणाली की मांग कर रहा है। शहरी यातायात व्यवस्था में पुलिस के अलावा सड़क प्रारूप में सुधार की बड़ी गुंजाइश है। समय की मांग को देखते हुए सार्वजनिक परिवहन को नए अंदाज व मांग आधारित करना होगा। इलेक्ट्रिक टैक्सियां एक समाधान के रूप में तभी लाभकारी होंगी, अगर शहरी रूट तय करते हुए समाज की राय ली जाए। दुर्भाग्यवश हिमाचल में परिवहन को सियासत केवल अपनी प्राथमिकता में आगे रखती है और यही एचआरटीसी का मॉडल बन चुका है। दूसरी ओर निजी वाहनों को केवल पंजीकरण का दरिया बना देने से भी समस्याएं बढ़ रही हैं। बिना पार्किंग सुविधाओं के वाहन खरीद पर शर्तें लागू नहीं होंगी, तो समस्या और विकराल होगी। कभी शिमला शहर पैदल चलता था, लेकिन आज वाहनों के बीच शहर में सुकून तलाश करना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में यातायात नियंत्रण महज पुलिस व्यवस्था नहीं, बल्कि शहरी योजना व विकास को नए सिरे से संबोधित करना भी है। पर्वतीय शहरों की भौगोलिक स्थिति को समझते हुए यातायात के विकल्प झूला पुल, ओवरहैड ब्रिज, एलिवेटिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम तथा रज्जु मार्गों की स्थापना से तराशने होंगे। प्रदेश के महत्त्वपूर्ण शहरों को अगर हॉर्न फ्री करना है, तो मुख्य बाजारों को सर्वप्रथम वाहन मुक्त करना होगा। हमीरपुर के मुख्य बाजार को वाहन वर्जित बनाने की नागरिक कोशिशें आज तक विफल रहीं, तो इसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव परिलक्षित होता है। जाहिर है शिमला-मंडी को अगर हॉर्न के शोर से दूर करना है, तो यह राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी परीक्षा है।


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