अन्ना आंदोलन तो मर चुका!

By: Apr 2nd, 2018 12:05 am

मुझे 5 अप्रैल, 2011 का दिन आज भी याद है, जब अन्ना हजारे ने प्रेस क्लब ऑफ  इंडिया के आंगन में पहली बार मीडिया को संबोधित किया था। क्लब के भीतर और बाहर कार्यकर्ताओं का हुजूम उमड़ा था। अन्ना के साथ अरविंद केजरीवाल और योगेंद्र यादव भी मौजूद थे। वह दौर भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन का था, जिसका सशक्त हथियार लोकपाल को माना गया था। आंदोलन की शुरुआत रामलीला मैदान में एक रैली से हो चुकी थी, जिसे बाबा रामदेव और राम जेठमलानी आदि ने संबोधित किया था। कई और नेता भी उस रैली में मौजूद थे। उसके बाद अन्ना हजारे और उनकी टीम ने जंतर-मंतर पर अनशन किया था। मैंने खुद भीड़ में शामिल होकर महसूस किया था कि पढ़े-लिखे और ऊंची नौकरियों वाले नौजवान भी छुट्टी लेकर अन्ना को सुनने आए थे। बाद में जब अन्ना और केजरीवाल को गिरफ्तार किया गया, तो पुलिस को जनता की आंखों में धूल झोंक कर रिंग रोड से गुजरते हुए उन्हें तिहाड़ जेल ले जाना पड़ा था। जब दोनों की रिहाई हुई, तो जेल के बाहर एक पूरा, उत्तेजित जन सैलाब मौजूद था और सैकड़ों पुलिस वाले थे। अन्ना उस दौर में जननायक बन चुके थे। लोगों और मीडिया में उनकी तुलना गांधी से की जाने लगी थी। एक इंटरव्यू में उनसे पूछा गया था-‘क्या आप देश के राष्ट्रपति बनना चाहेंगे।’  दरअसल अन्ना का आग्रह और एजेंडा आम आदमी से इतना जुड़ा था कि संसद का विशेष सत्र तक बुलाना पड़ा और लोकपाल पर विस्तृत विमर्श किया गया। तत्कालीन यूपीए सरकार अन्ना को आश्वस्त करने में कामयाब रही कि जल्द ही लोकपाल बिल पारित कर उसे कानून का रूप दे दिया जाएगा। केंद्र में लोकपाल की और राज्यों में लोकायुक्त की व्यवस्था होगी। लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को भी रखने की बात की गई। तब से लेकर आज तक एक लंबा अंतराल बीत चुका है। उस दौर में जो आंदोलनकारी थे, उनमें से केजरीवाल और सिसोदिया दिल्ली के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री बन चुके हैं। लंबा-चौड़ा तिरंगा लहराने वाली, पूर्व आईपीएस अफसर किरण बेदी भाजपा में शामिल होने के बाद अब पुड्डुचेरी की उप राज्यपाल हैं। पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने भी भाजपा का दामन थाम लिया और अब वह मोदी सरकार में विदेश राज्यमंत्री हैं। नारेबाज संजय सिंह राज्यसभा सांसद बन चुके हैं। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण किसान और कृषि के मुद्दों से जुड़ी ‘स्वराज इंडिया पार्टी’ को जैसे-तैसे ठेल रहे हैं। कुमार विश्वास अब भी कविता के जरिए अपनी कुंठाओं को बयां करने में मस्त हैं। यानी अन्ना का भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन हांफता हुआ कई हिस्सों में बंट चुका है। यूं कहना चाहिए कि अन्ना आंदोलन तो मर चुका है, लेकिन भ्रष्टाचार की यथास्थिति ही है, बल्कि पूर्व आंदोलनकारियों पर भ्रष्टाचार के दागदार आरोप लग रहे हैं। लोकपाल बिल पारित होकर कानून बन चुका है, लेकिन कभी कथित नेता प्रतिपक्ष नहीं है, तो कभी प्रतिष्ठित न्यायविद की नियुक्ति ही अधर में लटकी है। विपक्ष में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है, जिसके सिर्फ 48 लोकसभा सांसद हैं। यदि 55 सांसद भी होते, तो उनके नेता को विपक्ष का नेता बनाया जा सकता था। महत्त्वपूर्ण लोकपाल की व्यवस्था नहीं है, बल्कि सवाल राजनीतिक नीयत का है। अब इतने सालों के बाद जनता को लगता है कि भ्रष्टाचार निरंतर और अक्षत व्यवस्था है, लिहाजा इस बार अन्ना हजारे केंद्र सरकार के एक ही आश्वासन पर मान गए और सात दिन पुराना अनशन भी तोड़ दिया। इस बार अन्ना की शर्तों में पुरानी जिद नहीं थी, क्योंकि राजधानी दिल्ली में उन्हें पहले जैसा जन समर्थन भी नहीं मिला। अन्ना अब लोकपाल की बात बाद में करते हैं, लेकिन चुनाव आयोग में सुधारों, किसान और खेती की ज्यादा बात करते हैं। यह जुबान आंदोलनकारी की नहीं, बल्कि राजनीतिक विपक्षी की है। जहां तक भ्रष्टाचार का संदर्भ है, तो विरोधी भी दबी जुबान में मानते हैं कि मोदी सरकार में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है। सरकार और सत्ता के गलियारों में दलालियां बंद हो चुकी हैं। बेशक राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रवक्ता चीखते रहें कि राफेल लड़ाकू विमान की खरीद में घोटाला हुआ है, लेकिन आरोप तथ्य परक नहीं हैं। जब यूपीए सरकार में एक के बाद एक 15 लाख करोड़ रुपए के घोटाले उजागर हो रहे थे, तब अन्ना का आंदोलन सामने आया था। केजरीवाल ने भी जिन 15 नेताओं के खिलाफ घोटाले और भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, अब वह खुद ही उनसे माफी मांग रहे हैं। लब्बोलुआब यह है कि जनता का उस आंदोलन से गहरा मोहभंग हुआ है, लिहाजा अन्ना हजारे भी आज अप्रासंगिक लग रहे हैं। लोकपाल पर कभी-कभार शोर 1976 से सुना जाता रहा है। अब भी न जाने कब तक इंतजार करना पड़ेगा? और भ्रष्टाचार के संदर्भ में वह कितना प्रभावी रहता है, यह भी देखना शेष है। अन्ना को अब आराम करना चाहिए, क्योंकि अब अनशन की अवस्था नहीं रही और सत्ता में कांग्रेस भी नहीं है।


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