कोटखाई के मुजरिम

By: Apr 27th, 2018 12:05 am

न मुजरिम सामान्य हैं और न ही इसकी खोज साधारण तरीकों से संभव है, इसलिए आरोपों के तीरों से बिंधा कोटखाई का सामाजिक परिदृश्य आज भी आहत है। कहीं जंगल में दबी चीख की अनुगूंज का बार-बार लौट आना या कहीं जांच के मुर्दों का जीवित हो जाना सालता है। वहां एक साथ कई मुजरिम पल-पल नागरिक संदेहों की काली छाया में गुम होते और जांच की आहट में कांपती कोटखाई की पूर्ण नग्न जमीन पर रेंगते सवाल हाजिरी भरते हैं। भले ही अपनी मशक्कत का तजुर्मा करते हुए सीबीआई ने एक चरानी के मार्फत सारा रहस्य चीर डाला हो, लेकिन भीड़ की तफतीश इससे सहमत नहीं, तो क्या कोटखाई के मुजरिमों का हुलिया उन परतों से अभी धुला नहीं, जिन्हें अनावृत्त करने का दावा माननीय अदालत के समक्ष हुआ है। दरअसल कोटखाई के जघन्य अपराध ने एक साथ समाज, राजनीति के अलावा हिमाचली छवि व पुलिस अव्यवस्था के मुजरिमों का फ्रेम टांग रखा है। इस दौरान चाबुक बदलते रहे, लेकिन आरोपों की भगदड़ में समाज का विश्वास ही कुचला जाता रहा। आज भी अगर छात्रा न्याय मंच सीबीआई की फाइनल स्टेटस रिपोर्ट से असहमत नजर आ रहा है या अपराध की पृष्ठभूमि संकेतों और संदेहों से भरी है, तो जनता के दबाव के मायने संगीन हैं या जनता आक्रामक नहीं होती, तो जांच के जख्म यूं ही रिसते रहते। ऐसे में यह प्रश्न भी उठता है कि क्या अब अपराध के खिलाफ नागरिक आवाज को सशक्त होना पड़ेगा या पुलिस की हर जांच पर तर्क-वितर्क करने की खुली छूट मिल जाएगी। अपराध और जांच के फासलों के बीच जिस तरह नागरिक समाज चला है, वहां जागरूकता के हिसाब में सियासत भी तो मापी जाएगी। कहना न होगा कि कोटखाई प्रकरण और तफतीश की कई शाखाओं पर सियासत के उल्लू भी सीधे हो रहे थे और अब जबकि जांच के कदम मात्र एक चरानी के सहारे आगे बढ़ रहे हैं, तो कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सुखविंदर सुक्खू का बयान सतर्क करता है। क्या राजनीतिक कारणों से तब की पुलिस जांच दबाव में आ गई या उस वक्त की सरकार ने जल्दबाजी में अपना दामन फंसा लिया। यह कहना मुश्किल है कि सीबीआई अभी भी साक्ष्यों के कितना करीब है, लेकिन यह सत्य है कि कोटखाई मामले में अफवाहों के बाजार में सियासत खूब बिकी और इसकी हानि तत्कालीन सरकार को भी उठानी पड़ी। इस अपराध ने हिमाचल पुलिस की कलई खोली या नहीं, लेकिन इस दौर की कहानी में कई अधिकारियों को खलनायक बनना पड़ा। पूरी की पूरी एसआईटी टीम अगर आज हवालात में है, तो विभागीय दर्पण पर आई खरोंचें खुद ही जुल्म कर रही हैं। सीबीआई जिस मुकाम पर खड़ी है, उससे पहले कितने रास्ते टूटे और कांटों से गुजरी हिमाचल पुलिस की घायल छवि में न जाने कितने इश्तहार फट गए। जलते पुलिस थाने की बदबू अभी खत्म नहीं हुई है और न ही हवालात में मरे सूरज की आत्मा शांत हुई है। पुलिस की जिन बेडि़यों ने कोटखाई के अपराध को पकड़ा, उन पर अविश्वास का जंग मौजूद है तो जहां सीबीआई जांच ने घटनाक्रम मोड़ा, वहां न जाने कितनों की हवा निकल गई है। इस दौरान हर किसी ने कोटखाई के मुजरिमों को पकड़ने के लिए डंडे चलाए और कानून की व्यवस्था के जोखिम बढ़ा दिए, लेकिन अब जो सामने है उसे कबूल करने की शर्तें क्यों पैदा हो गईं। यह इसलिए भी क्योंकि इस अपराध के खिलाफ जांच से कहीं अधिक बाहर शोर हुआ और वहां मीडिया हदें तोड़ता रहा और समाज ने भी चश्मे पहन लिए। कोटखाई के सामने अब चार फुट के चरानी का काला चिट्ठा खुल रहा है। आरोपों की सूली पर चढ़ाने का सिलसिला अंत में यहीं रुकेगा, कहा नहीं जा सकता। जांच के अनेक फ्रेम खाली लटके हुए, लेकिन एक पर सीबीआई ने एक चेहरा मढ़ दिया। यह कानून को अपनी जिरह और सबूत से देखना है या कोटखाई की आहत भावनाएं अभी भी जांच के अंजाम पर सहमत नहीं होंगी, आने वाला समय ही बताएगा। यहां मुजरिमों की शिनाख्त और जांच के निष्कर्ष से पहले जो छवियां टूटीं या अफवाहों की सूली पर जो चढ़े, आखिर उसका भी तो पश्चाताप करना होगा।

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