क्षेत्रवाद का सियासी निवेश

By: Apr 3rd, 2018 12:05 am

सियासत के दांत हमेशा मंजन की तलाश में रहते हैं, ताकि जनता के सामने चेहरा आए तो चमक के साथ मुस्कराने का अंदाज बयां हो। जाहिर है इसके लिए बाकायदा राजनीतिक निवेश होता है और इसीलिए हिमाचल में जिसे हम मुस्कराहट मानते हैं, दरअसल दांत चमकाने व दिखाने का द्वंद्व है। जो रास आई, उसे हम क्षेत्रवाद की दातुन कहें, क्योंकि जनता भी अब सतही सोच व स्वार्थी मकसद की पैबंद सरीखी हो चुकी है। पुनः केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना का सवाल वहीं तय होने लगा, जहां शिक्षण संस्थानों की हार तय है और यह इसलिए हो रहा है, क्योंकि साख के युद्ध में नेताओं का वर्चस्व फिरौती मांगता है। यह भी राजनीतिक फिरौती है कि पिछले आठ सालों में शिक्षाविदों की जमीन छीन कर नेता अपना खुलासा कर रहे हैं। आश्चर्य यह कि शिक्षण संस्थानों के तर्क भी राजनीतिक निवेश हैं और इसीलिए जंग का माहौल बनाकर अपने-अपने क्षेत्र का फैसला हो रहा है। क्षेत्रवाद के अनूठे ग्रहण में फंसा केंद्रीय विश्वविद्यालय, हिमाचली तासीर का भी एक बीमार लक्षण है। यह पहला जिक्र नहीं और न ही ऐसा पहला अवसर है, जब उद्देश्य के आगे लक्षण हार रहे हैं। जिस औद्योगिक सहूलियत के लिए ईएसआई जैसा मेडिकल कालेज चाहिए था, वह अपना क्षेत्र और क्षेत्रफल बदल कर नेरचौक पहुंचता है, तो भारतीय होटल प्रबंधन संस्थान की स्थापना के लिए हिमाचली पर्यटन स्थलों की कीमत शून्य हो जाती है क्योंकि इसे तो हमीरपुर में ही खोला जाना था। कृषि अनुसंधान का ताल्लुक पालमपुर से जुड़े, तो ऊना-बिलासपुर के खेत-खलिहान की वकालत किस सियासत का विज्ञान बनेगा। क्षेत्र को बड़ा करने की होड़ ने राजनीति को बड़ा किया या जिसे पाने की कोशिश की, उसे खो दिया। कमोबेश हर बार सत्ता की गुजारिश में चलता विकास, किसी न किसी क्षेत्र में फंस जाता है, वरना बस डिपो वहीं क्यों बनते हैं, जहां परिवहन मंत्री बसते रहे। बसों के रूट या पर्यटन सूचना केंद्र, सत्ता के प्रचार में हर बार नए-नए क्षेत्र से जुड़ ही जाते हैं। अगर ऐसा न होता तो मंडी वास्तव में हिमाचल की सांस्कृतिक राजधानी होती या हजार साल का चंबा धरोहर शहर तथा कला की राजधानी होता। क्या मंडी के सांस्कृतिक तथा चंबा के कलात्मक पक्ष को देखते हुए माकूल अधोसंरचना व राज्य स्तरीय शिक्षण एवं शोध संस्थान नहीं बनाए जा सकते। विडंबना यह कि हमारे भीतर के भाषायी क्षेत्रवाद ने सारी बोलियों की मिठास से हिमाचली भाषा नहीं चुनने दी, तो हमारा सामाजिक निवेश कहां हो रहा है। इसीलिए हिमाचल का आज तक ऐसा समग्र इतिहास समाहित नहीं हुआ, जो सारी रियासतों की पृष्ठभूमि से हिमाचली नायकों की गौरवगाथा बन जाता। मंगलपांडे का जिक्र आज भी अंगे्रजों के खिलाफ पहले विद्रोह की गाथा है, जबकि हिमाचल के वजीर राम सिंह पठानिया ने इससे कुछ साल पहले ही ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देने का साहस व सामर्थ्य दिखाया था। क्या हम योग्यता व दक्षता का मूल्यांकन अब केवल क्षेत्र के हिसाब से करेंगे और यह अगर हमारी बौद्धिक कला बन जाए, तो सोच के कीड़े पूरे प्रदेश को नोचते रहेंगे। सरकार के फैसलों से जहां कहीं निवेश होता है, वहां यथार्थ में कोई न कोई क्षेत्रवाद क्यों दिखाई देने लगा है। हिमाचल या बिलासपुर में यूं ही एम्स तो नहीं आया होगा, कुछ असर है, उन निगाहों का जो जगत प्रकाश नड्डा को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बनाती हैं, वरना वर्षों से ट्रॉमा सेंटर के लिए यह स्थान अपना लक्ष्य हारता रहा। जिस देहरा में किसी भी सरकार ने कालेज तक न खोला, वहां किसके अस्तित्व की जंग में पूरा एक विश्वविद्यालय हार रहा है। स्कूल-कालेज की खबर आज क्षेत्रवाद दे रहा है, तो योग्यता के दर्पण में पूरी शिक्षा व्यवस्था हार रही है। इससे हटकर देखें, तो जहां पुस्तकालय होगा कोई क्षेत्रवाद नहीं होगा। कला वीथी होगी, क्षेत्रवाद नहीं होगा। कलाकार मंच या बुजुर्ग नागरिकों का क्लब होगा, कोई क्षेत्रवाद नहीं होगा, लेकिन विकास के स्तंभों पर राजनीति अपना ही इतिहास लिखती है। हर गांव में खेल का मैदान, श्मशानघाट और पंचायत स्तर पर सभी विभागों को एक छत के नीचे विकास मिले, तो कोई क्षेत्रवाद नहीं होगा। राजनीतिक निवेश की सौगंध खाने के अवसर बढ़ रहे हैं और इससे मीडिया भी अछूता नहीं। मुख्य मीडिया अब सोशल मीडिया के क्षेत्रवाद में फंसा है, इसलिए कुछ बड़े हस्ताक्षर जो अखबारी कागज पर नहीं लिखते, नेताओं की अर्ज बनकर सोशल मीडिया की पत्तल पर लिख देते हैं। हर दिन विषयों की जमात में पलता मीडिया ही बुद्धिजीवी है, ऐसा भी तो नहीं। अगर मीडिया केवल प्रेस क्लबों की इमारत में है, तो यह भी बौद्धिक क्षेत्रवाद है, जो सुविधाओं की कोठरी में कहीं तो शब्द बदल रहा है। शब्दों की पहले फरमाइश नहीं पैमाइश होती थी, लेकिन अब क्षेत्रीय संभावनाओं की अभिव्यक्ति में पत्रकार भी खुद को किसी न किसी क्षेत्र का मजमून बना रहा है। ऐसे में सरकार ईमानदारी से मीडिया संबंधों को व्यापक स्वरूप देते हुए तमाम बुद्धिजीवियों के क्लब को मान्यता दे, जो भवन प्रेस क्लब की अमानत में ढके हैं, उन्हें वृहद आकार देते हुए एक ऐसे परिवार का विस्तार हो, जहां कलाकार मंच, साहित्यकार संदर्भ, सेवानिवृत्त कर्मचारी विवेचन तथा समाजसेवी संस्थाओं को भी अपनी मंत्रणा का एक स्थायी ठौर मिले। प्रदेश में राजनीतिक नफरत के दंश ही क्षेत्रवाद का प्रसार कर रहे हैं। वर्तमान सरकार के खाद्य आपूर्ति मंत्री ने पूर्व शहरी विकास मंत्री सुधीर शर्मा पर आरोप लगाकर एक अनूठा क्षेत्रवाद दिखा दिया कि धर्मशाला के बजाय बीड़-बिलिंग में क्यों पैराग्लाइडिंग के वर्ल्ड कप का आयोजन हुआ। आश्चर्य है कि हिमाचली मंत्री केवल अपनी राजनीतिक जगह पर पूरे प्रदेश को भूल जाते हैं। क्षेत्रवाद के इस फासले को दूर करना है, तो महाराष्ट्र की तर्ज पर हर जिला का एक स्वतंत्र पालक या संपर्क मंत्री बनाना पड़ेगा, जो अपने गृह क्षेत्र से हट कर अन्य जिला की विकास यात्रा लिखे। इसी तरह स्थानांतरण नीति-नियम अगर कर्मचारी-अधिकारियों को पैतृक जिलों से दूसरे जिलों में भेज देंगे, तो क्षेत्रवाद के ये खिलौने टूटेंगे।


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