चुनाव तू-तू, मां-मां का

By: May 12th, 2018 12:05 am

कर्नाटक में चुनाव प्रचार समाप्त हो चुका है। जब आप यह संपादकीय पढ़ रहे होंगे, तब कर्नाटक में मतदान जारी होगा। जनादेश 15 मई को सार्वजनिक होना है। कांग्रेस ने 1984 में लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटें जीती थीं और राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद को स्थायित्व दिया था। ऐतिहासिक जीत के कुछ दिनों बाद ही प्रधानमंत्री राजीव गांधी कर्नाटक गए। विधानसभा चुनाव का दौर था, लेकिन जनादेश ने पूरे देश को चौंका दिया। प्रधानमंत्री की पार्टी कांग्रेस को खारिज कर दिया गया और कर्नाटक ने जनता पार्टी के रामकृष्ण हेगड़े की सरकार को चुना। लिहाजा साफ है कि कर्नाटक के वोटर भिन्न मानस के हैं। वे किसी प्रधानमंत्री या बड़े नेता के प्रभाव में नहीं आते और अपना जनादेश खुलकर देते हैं। मतलब यह नहीं है कि कर्नाटक में प्रधानमंत्री मोदी और उनकी भाजपा चुनाव हार जाएगी। मतलब यह है कि चुनाव को जिस तरह ‘मोदी बनाम राहुल गांधी’ का रंग देने की कोशिशें की गईं, वे सभी बेमानी साबित होंगी। प्रचार के आखिरी दिन राहुल गांधी ने मां सोनिया गांधी से चिपका विदेशी मूल का मुद्दा उठाया। राहुल को अपनी ‘मां’ को इटैलियन कहने और किसी भी भारतीय से ज्यादा ‘भारतीय’ करार देने की जरूरत क्या थी? किसने स्पष्टीकरण मांगा था? ‘मां’ ने देश के लिए त्याग किए हैं। कौन सा त्याग है वह? जरा राहुल और खुद सोनिया गांधी गिनवा दें। क्या यही कर्नाटक चुनाव का मुद्दा माना जाए? प्रधानमंत्री मोदी ने राहुल गांधी को ‘बाल्टीवाला दबंग’ करार देकर एक गाली दी है। क्या कन्नड़ लोग इस गाली पर अपना जनादेश तय कर सकते हैं? प्रधानमंत्री मोदी ने राहुल को ‘चुनावी हिंदू’ कहा और सवाल किया कि ‘कुर्बानियों की कहानियां कब तक सुनाएंगे?’ उधर सोनिया गांधी ने सवाल किया कि प्रधानमंत्री मोदी के अभिनेता की तरह भाषण देने से क्या लोगों और देश का भला होगा? राहुल गांधी ने खुद को ‘प्रधानमंत्री’ मान लिया, मानो वह भी वंशवादी पद हो! कर्नाटक चुनाव प्रचार के आखिरी चरण तक आते-आते ऐसा लगा मानो दावे किए जा रहे थे कि भाजपा के पास मोदी है, तो राहुल के पास मां है! चूंकि चुनाव कर्नाटक विधानसभा के लिए था, लिहाजा ‘मोदी बनाम राहुल’ के बजाय ‘सिद्धारमैया बनाम येदियुरप्पा’ होना चाहिए था। लंबी बहसें इन दोनों नेताओं के बीच होनी चाहिए थीं। किसानों की आत्महत्या, सूखा-अकाल, दलित उत्पीड़न, आदिवासी और अल्पसंख्यकों को कम संरक्षण, सियासी हत्याएं, आईटी सिटी और रोजगार की दिक्कतें, भूखमुक्त होने का सच या अर्द्धसत्य, रोजगार मुहैया करवाने के दावों के सच आदि पर सार्वजनिक बहसें होनी चाहिए थीं। भ्रष्टाचार के आरोप मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा दोनों पर ही हैं। कर्नाटक में भ्रष्टाचार एक हास्यास्पद मुद्दा बनकर रह गया है। क्या कन्नड़ी लोग भ्रष्टाचार को ज्यादा तवज्जो नहीं देते और राज्य के चौतरफा विकास को लेकर ही चिंतित रहते हैं? इस सवाल पर भी विमर्श होना चाहिए था। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का एक कथन सामने आया था कि राहुल गांधी की बातों का मजा लीजिए। यह चुनाव था या मनोरंजन का कोई अखाड़ा…! लगता है हमारा लोकतंत्र भी परिपक्व नहीं हुआ है। हमारे चुनाव चुटकुलेबाजी हैं। कोई न तो मुद्दों की बात करता है और न ही मुद्दों के जवाब देता है। कागज का एक पुलिंदा घोषणा-पत्र के रूप में पेश जरूर किया जाता है। उसमें कुछ वादे, आश्वासन, कार्यक्रम और लक्ष्य निहित होते हैं। जनता के लिए राजनीतिक दलों की वही अंतिम और एकमात्र प्रतिबद्धता होती है, जो कभी भी साकार नहीं होती। बहरहाल हम पहले भी लिख चुके हैं कि चुनाव कर्नाटक के स्थानीय मुद्दों पर ही होने चाहिए, लेकिन चर्चा में ‘मोदी बनाम राहुल’ का समीकरण ही छाया रहा। वह भी तू-तू, मैं-मैं के स्तर पर शुरू हुआ और बाद में ‘मां-मां’ पर उसका उपसंहार हुआ। क्या इसे एक परिपक्व चुनाव माना जा सकता है?

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