निजी क्षेत्र से सीखे हिमाचल

By: May 1st, 2018 12:05 am

सीखने की कोई उम्र, तालीम और शोहरत नहीं होती, यह एक जज्बा है अपनी ही लकीरों से आगे बढ़ने का ताकि हर किसी जिक्र पर फिजाएं फिदा हो जाएं। आश्चर्य यह है कि हमारी परवरिश और पहचान के सारे सूत्रधार सरकारी हैं और यही ऐसा कवच है जो हिमाचली क्षमता को ताबूत बना रहा है। योग्यता-दक्षता तथा क्षमता के मूल्यांकन में सरकारी क्षेत्र एक परिणति हो सकता है, लेकिन कहीं आगे ले जाने का जरिया नहीं, फिर भी हिमाचली मानसिकता का यही घर है। सरकार के वर्चस्व में सरकारी अमानत का हिस्सा चुनना जैसे हिमाचल की फितरत है, इसलिए शिक्षा का दस्तूर बेजुबान दरख्वास्त के मानिंद नौकरी का जरिया बनकर रह गया है। हम चाहें तो अपने वजूद को खंगाल या भविष्य को निचोड़ कर देख लें कि हिमाचल में सरकारी नमक किस तरह हर नागरिक से चस्पां है। हिमाचल को गैर सरकारी नजरिए से देखना भी मुश्किल हो चला है, इसलिए नागरिक समाज अपने राशन से राजनीतिक भाषण तक गुलाम है। यहां  इज्जत के मायने सरकारी डोई में बंटते हैं, तो समाज की माली भी सरकार है। जिस समाज में संतुष्टि के लिए सरकार का पैबंद चाहिए, वहां कम में अधिक करना मुश्किल है। इसीलिए हिमाचली मानसिकता में यह फार्मूला घर कर गया कि जीने के लिए सिर्फ सरकार का हाथ चाहिए। दूसरी ओर धीरे से ही सही, एक दूसरा हिमाचल भी पनप रहा है, जो परिश्रम की प्लानिंग में अलग दिखना चाहता है। यहां जोखिम है- जद्दोजहद है, लेकिन न आराम है और न ही थकान है। थकान देखनी है तो राजधानी के फलक पर आराम फरमा रही कुर्सियों की शान में देखिए। किसी भी सरकारी कार्यालय की छत के नीचे आराम फरमा रही व्यवस्था में देखिए। नगरोटा बगवां से संचालित एक निजी परिवहन सेवा को ऐसी सहूलियतें तो नहीं मिलीं कि इसका विस्तार हो जाए, लेकिन दर्जनों बसें-लंबे रूट दौड़ रहे हैं, तो वहां जैसा अंतर एचआरटीसी के घाटे पर क्यों नहीं। कम संसाधनों में अधिक करने वाले निजी क्षेत्र की क्षमता का अवलोकन नहीं होता, वरना सरकारी कतारें क्यों हारतीं। क्यों सरकार के बड़े स्कूल छोटे दिखाई देते या मानव संसाधन अपमानित होता। अब क्रिकेट एसोसिएशन बनाम हिमाचल खेल विभाग ही करके देख लें। दोनों की सोच व उपलब्धियों का अंतर स्पष्ट है। चंद वर्षों में क्रिकेट अधोसंरचना का विस्तार संभव है, तो खेल के नए आयाम क्यों सरकारी विभाग में उदासीन हैं। जाहिर है हिमाचल का गैर सरकारी क्षेत्र अपने लक्ष्यों को सामने रखकर चलता है, भले ही यह मालूम रहे कि अड़चनें हर सूरत रोकने पर आमादा हैं। विकरालता तो तब समझ आती है, जब चुनौतियां सामाजिक सरोकारों की तरह-तरह की व्याख्या से शुरू होती हैं और हर्जाना पूरे परिवेश को चुकाना पड़ता है। आंकड़े क्यों बताने लगे कि जीएसटी के अमल में आने से हिमाचल प्रदेश अपना राजस्व खोने लगा है। गौर से देखें तो इसके तीन बिंदुओं पर समाज, सरकार और निजी क्षेत्र खड़ा है। हम जीएसटी के अखाड़े में निजी क्षेत्र  को परास्त करके विजयी हो जाएं, यह संभव नहीं और यह भी मुश्किल है कि बिना शुल्क चुकाए नागरिक अपने प्रदेश की आर्थिकी सुधार दें। हिमाचली परिदृश्य में अगर हर कामकाज या सेवा क्षेत्र में सरकार को ही विद्यमान रहना है, तो जीएसटी के फाहे इधर-उधर भटकते रहेंगे। हिमाचल का टैक्स साम्राज्य दरअसल बना ही नहीं। हम अगर राज्य के राजस्व स्रोत को देखें, तो शराब इत्यादि बेचने में ही खजाने की बेहतरी है। प्रति व्यक्ति आय में तरक्की करने वाले राज्य में ऐसा क्यों है कि प्रति व्यक्ति कर अदायगी निरंतर घट रही है और इससे बुरा हाल यह कि खजाना जिन सरकारी उपक्रमों को पाल रहा है, उनमें से अधिकांश घाटा बढ़ा रहे हैं। नौकरी के पैमानों में सरकारी ढांचे की बेहतरी एक समाधान हो सकता है, लेकिन निजी हाथों को सशक्त करें तो पैगाम बदल सकता है। किसी गांव के छोटे से दुकानदार की राज्य के प्रति सहभागिता को समझें, तो इस गणित में पैदा हो रहे रोजगार को समझना होगा। हर दुकानदार कर अदायगी के साथ-साथ, कई लोगों की आजीविका का प्रत्यक्ष या परोक्ष इंतजाम भी करता है। इस हिसाब से देखें तो सफलता के जो पैगाम निजी क्षेत्र की छोटी से छोटी इकाई में बसते हैं, वे सरकारी में क्यों बिखर जाते हैं, समझना होगा। स्कूल शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं में निजी स्कूल अगर नाक बचा रहे हैं, तो विकास की गाथा में आईपीएच या पीडब्ल्यूडी के कंधे बने ठेकेदारों की क्षमता ही तो जीत रही है। किसी भी निजी संस्थान के काम करने का तरीका या कार्य घंटों से दिवसों के योग तक समाहित पद्धति का मुकाबला क्या कभी सार्वजनिक क्षेत्र कर पाएगा।

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