परिवेश की कहानियों का घोंसला

By: May 6th, 2018 12:05 am

पुस्तक समीक्षा

* पुस्तक का नाम : नदी गायब है (कहानी संग्रह)

* लेखक का नाम : एसआर हरनोट

* संपादन : उषा रानी राव

* मूल्य : 325 रुपए

* प्रकाशक : अनन्य प्रकाशन, दिल्ली

परिवेश से कहानी चुराना अगर एक निश्चित दिशा है, तो कहानी को परिवेश बनाना लेखन की अद्भुत कला है और इसी आलोक में लिपटीं एसआर हरनोट की आठ कहानियां मानो कितने युगों के परिदृश्य से जोड़कर एकदम अद्यतन धरातल पर ले आती हैं। पूरे संग्रह ‘नदी गायब है’ के बहाने लेखक ठेठ लोकजीवन की परंपराओं और खेत-खलिहान के आसपास से पृष्ठभूमि चुनकर कहानियों का आंचल फैलाता है, तो लगता है इनकी जड़ेें हमारे अपने आंगन को छू रही हैं। वास्तव में हरनोट की कलम हमेशा पर्वतीय व सामाजिक संवेदना से भीगते हुए लिखती है, तो आहों के बीच परिवेश का गुनाह पकड़ा जाता है और फिर घूंघट में छिपे सरोकार अनावृत्त होते हैं। लिटन ब्लॉक का गिरना केवल मिट्टी-गारे का टूटना नहीं, बल्कि एक युग के ढहते समीकरणों के बीच इतिहास को अपनी कलम से बुनना है। वहां एक इमारत की आत्मा को छूता लेखकीय संवेग जब अधीर हो उठता है, तो वृत्तांत की पलकें खोलकर कहानी रू-ब-रू होती है। हरनोट की कहानियां अपने भाषायी अंदाज में इर्द-गिर्द की मिठास को छूती हैं, तो ‘पखले’ के सींग मारने जैसा उल्लेख मर्म का तिलक बन जाता है। ‘मिट्टी के लोग’ शीर्षक वाकई परिवेश के लिए है, तो सामाजिक चांदनी में नहाती ‘माफिया’ सरीखी कहानी मानो मोर के पंख का ऋण चुका रही हो। सारी कहानियां एक बड़ा घोंसला बना लेती हैं। हमारे अपने वजूद और सोच में घुसपैठ करता विषाद जब बार-बार लौटकर हमें ही छूता है, तो संदर्भों की कालिख में अपने उजाले ढूंढती कहानी का वर्चस्व मार्मिक हो जाता है। कहानी की परिक्रमा में परिवेश की कठोरता का जिक्र, मानवीय संवेदना की पत्थरबाजी से सीधा मुकाबला करता है। विषय ढूंढती कहानियों की अपनी मर्यादित सीमा रेखा है और इसीलिए बिना मुखौटों के जब परिवेश वशीकरण करता है, तो गांव की मिट्टी से संवाद की उन्मुक्तता ‘न गाए न बाच्छी, नींद आए हाछी’ जैसे मनमोहक पल जोड़ लेती है। प्रगति से हुनर छीनती विकास की बाहें और पक्के मकानों से खिसकती मानवीय परिभाषा के बावजूद, जहां कच्ची मिट्टी से सने एसआर हरनोट के हस्ताक्षर दिखाई दिए, उषा रानी राव ने इन्हें करीने से सजाकर नाम दे दिया-पर्यावरणीय चेतना की कहानियां। ये कहानियां कहीं और भी हैं-कई और भी हैं, लेकिन एसआर हरनोट ने ऐसे अनेक घोंसले पाठक के मन में बनाए हैं और इन्हीं तिनकों का हिसाब करती ‘आभी’ बार-बार जिंदा होकर लौट आती है। उसके पंखों से बंधी पहाड़ की उम्मीदें और श्रम की अनुगूंज में परिवेश का मौलिक स्वरूप ही साधना बन जाता है। हम कहानी संग्रह के साथ हिमाचल के ऐसे रिश्ते का गठबंधन तो देख ही सकते हैं, जो हर नागरिक में एक  पात्र की तलाश करता है। यहां घराट का संघर्ष और वक्त के चाक पर घूमती जिंदगी के न जाने कितने अक्स हैं। दर्द के लम्हों का चाबुक पूरे युग की खाल नहीं खींच सकता, फिर भी जहां नदी गायब हो रही है, वहां समाज के बदन का रिसाव सामने है। हम चाहें तो इन कहानियों में खुद को समाहित कर लें या किसी छोर पर पहुंचकर आपने आसपास के संदेश को महसूस भी कर सकते हैं। परिवेश के प्रश्नों पर साहित्य अगर अपनी अनंतता खोज सकता है, तो यह संग्रह अपने मूल्यों की थाती पर एक पहरेदार के मानिंद दिखाई देता है।

-निर्मल असो

कविता

मुझे सहेज कर रखना

मैं खजाना हूं तेरे आंचल में

बस मेरी खबर रखना, मुझे सहेज कर रखना

जगा देना तुम मेरी अपार संभावनाओं को

संवार लेना मुझे, खिलखिलाती बगिया की तरह

वरना ऐसा भी होता है, मैं क्षीण होता हूं

कभी प्यार के अभाव में और कभी मूल्यों के

मैं फूल हूं, खिलखिलाता

महक जाऊंगा अगर, सींच लोगी तुम मुझे प्यार से

मगर प्यार इतना भी न हो जो करा दे नजरअंदाज मेरी गलतियों को भी

मैं हो जाऊंगा दिशाविहीन अगर मैं चलूंगा भटकता हुआ

मुझे रोक लेना, मुझे टोक लेना, ताकि जिंदगी में आगे बढ़ सकूं, कुछ बन सकूं, कुछ कर सकूं।

– अभिनव सत्यार्थी, मोबाइल – 8219710617

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