पानी न अमृत, न अनुकूल

By: May 11th, 2018 12:05 am

हिमाचल में अगर पानी अमृत नहीं रहेगा, तो कसूरवार होने की वजह हमारे वजूद में है। आईपीएच महकमे के लिए पुनः गर्मियों की शुरुआत जिस निकम्मेपन से हुई, उसका एक चित्रण शिमला के सूखे कंठ और दूसरा धर्मशाला की प्यास बुझाती परियोजना की बीमारी में दर्ज हो रहा है। अगर इन दोनों तथाकथित स्मार्ट शहरों की आबरू को अगर आईपीएच विभाग लूट रहा है, तो मंत्री महोदय इसका कड़ा संज्ञान लें वरना अरबों के बजट पेश करने का शायद ही कोई अर्थ रहेगा। प्रदेश की राजधानी अपनी मांग के अनुरूप पीने का पानी हासिल नहीं कर पा रही, तो यह अति दुर्भाग्यपूर्ण है। हो सकता है हमने शिमला के कई हिस्से कर लिए हों और जहां वीआईपी शिमला की जलापूर्ति तो लबालब हो,लेकिन सामान्य नागरिकों की बस्तियां केवल इंतजार में डूब रही हैं। हो सकता है शिमला का कद संभाला न जा रहा हो या पिछले साल के पीलिया से कोई सबक न लिया हो, लेकिन धर्मशाला को पानी पिलाते विभाग ने अपनी काबिलीयत को दागदार क्यों बना लिया। शहर के एक हिस्से में दर्जनों लोगों में फैला डायरिया साबित यही करता है कि हमारे जीवन की चुनौतियां, एक विभाग की लापरवाही का केवल सबूत हैं। आश्चर्य यह कि हर साल महकमा अरबों की नई परियोजनाओं में शरीक रहता है, फिर भी यह गारंटी नहीं कि नागरिकों को उपयुक्त तथा सुरक्षित पीने का पानी मिले। सबसे बड़ी विडंबना तो राजधानी शिमला की है, जहां सामान्य नागरिकों को हफ्ते में एक या दो बार ही पानी मिलता है। इस पर भी यह भरोसा नहीं कि नलके में पानी के साथ क्या कुछ परोसा जा रहा है। यह स्थिति भी तब जबकि पर्यटन सीजन शुरू हो चुका है और सैलानी हिमाचली आतिथ्य में शुद्ध पानी और हवा के मुरीद बनकर आते हैं। जाहिर है निजी होटलों को टैंकरों के पानी पर निर्भर होना पड़ता है और इसकी प्रायः कोई जांच-पड़ताल नहीं होती। शिमला हर बार मुड़ कर उसी आश्विन खड्ड की तरफ देखता है, जो बुरी तरह प्रदूषित है। यहां शहरी विकास भी पूरी तरह दोषी है। एक राजधानी के नक्शे में जो योजनाबद्घ विकास तथा नागरिक सुविधाओं का खाका होना चाहिए, उस पर आज भी तवज्जो नहीं। प्राकृतिक जल संसाधन सूख रहे हैं या शहर की गंदगी से प्रभावित हैं। शिमला की प्राकृतिक जल निकासी जिन नालों या खड्डों के माध्यम से होती थी, वहां अब बहुमंजिला इमारतों का साम्राज्य खड़ा है। ऐसे में कूड़ा-कचरा प्रबंधन मुकम्मल न होने के कारण सारे प्रदेश का ढांचा चरमरा रहा है। धूमल सरकार ने प्रदेश को पोलिथीन मुक्त करने की जोरदार मुहिम शुरू की थी और जिसका असर भी दिखाई दिया, लेकिन अब खेत और इनसान जिस स्रोत का पानी पीते हैं, वहां प्रदूषण के चिन्ह स्पष्ट हैं। महकमे की जलापूर्ति जिन खड्डों के आसरे है, वहां बड़ी से बड़ी परियोजनाएं भी बिना फिल्टरेशन के जनता तक पहुंच रही हैं। धर्मशाला में घर-घर डायरिया पहुंचाने का काम ऐसी ही परियोजनाओं ने ही किया, तो विभाग की कार्यपद्धति पर कुछ और प्रश्न चस्पां हो जाते हैं। बेशक विभागीय दायित्व में अदने कद के कर्मचारी तो फील्ड में जाकर जनता को संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं, लेकिन अधिकारियों के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं कि व्यवस्था देखें। जलापूर्ति प्रबंधन से लेकर पानी की गुणवत्ता जांचने तक की परिपाटी नदारद है, तो फिर डायरिया, आंत्रशोथ या पीलिया से कैसे बचेंगे। कब हम स्मार्ट सिटी शिमला को उसकी जरूरतों के मुताबिक पानी दे पाएंगे। आदर्श स्थितियों के हिमाचल में विभागीय लापरवाहियों का ऐसा दस्तूर कमोबेश हर कार्यालय की बपौती बना रहेगा, तो प्रगति के मूल प्रश्न मुंहबाय खड़े रहेंगे।

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