मोदी के खिलाफ मौलाना भी!

By: May 28th, 2018 12:05 am

ईसाइयों के आर्कबिशप पादरियों को लिखे एक पत्र में कहते हैं कि देश के हालात अशांत हैं और लोकतंत्र खतरे में है। उप्र में कैराना लोकसभा उपचुनाव के संदर्भ में मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद देवबंद ने भी फतवा जारी किया है कि देश बचाना है, तो भाजपा के खिलाफ वोट दें। रमजान के पाक महीने में गर्मी प्रचंड है, फिर भी ज्यादा से ज्यादा वोट डालें। कम वोट डालने से भाजपा जीत जाती है। यदि लोकतंत्र खतरे में होता, संविधान भी संकट में होता, तो क्या पादरी पत्र लिख सकते थे? मौलाना फतवा जारी कर सकते थे? देश में मात्र 2.3 फीसदी ईसाई आबादी के धर्मगुरु और मुसलमानों के मुल्ला-मौलवी क्या अपने-अपने घरों और संगठनों से बाहर निकल सकते थे? प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ जो विपक्ष लामबंद हो रहा है और सार्वजनिक बयानबाजी कर रहा है, प्रधानमंत्री के लिए भद्दे विशेषणों का इस्तेमाल किया जा रहा है, क्या लोकतंत्र के बिना यह सब कुछ संभव था? हमें लगता है कि लोकतंत्र के नाम पर देश में एक निरकुंश व्यवस्था सक्रिय है। एक जमात है, जो असहिष्णुता को जुमला बनाकर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ अभियान छेड़ती है और फिर अचानक गायब हो जाती है। फिर हिंदू-मुसलमान का माहौल बनाया जाता है। यह कैसा लोकतंत्र है, जिसमें जिम्मेदार चेहरे विकास और भाईचारे की बात ही नहीं करते। सामाजिक और मानवीय समस्याएं उन्हें तकलीफ ही नहीं देतीं। सिर्फ सामाजिक और सांप्रदायिक विभाजन ही उनका ध्येय है। उनकी एकमात्र नफरत है-मोदी और भाजपा। दरअसल ऐसी हरकतें और गतिविधियां ‘असंवैधानिक’ हैं, लिहाजा वे ‘अपराधी’ भी हैं। उन्हें दंड दिया जाना चाहिए। आज 28 मई है। कैराना में लोकसभा उपचुनाव के लिए मतदान किया जा रहा है। कौन जीतेगा, कौन हारेगा, यह हमारा अपेक्षित मकसद नहीं है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के मुताबिक, धर्म, जाति, समुदाय और भाषा के आधार पर वोट मांगना ‘असंवैधानिक’ है। चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष प्रक्रिया है। उसे हिंदू और मुस्लिम का रंग नहीं दिया जाना चाहिए। फतवों पर वोट, तो लोकतंत्र पर चोट है। फतवा दिया जाता है कि मोदी सरकार से पूरा देश और सियासी जमात परेशान है। देश को बचाने के लिए मोदी और भाजपा को हराएं। रमजान के पाक महीने की दुहाई…और मकसद है वोट मांगना। कल्पना करें कि यदि मंदिरों से आह्वान किए जाने शुरू हो जाएं और माइकों पर जोर-जोर से अपील की जाने लगे कि हिंदूवादी भाजपा को वोट दें, तो स्थितियां सांप्रदायिक बन सकती हैं। दंगा भी छिड़ सकता है। पहले भी सांप्रदायिक दंगे इन्हीं स्थितियों के मद्देनजर होते रहे हैं। अब मौलाना जिस मोदी के खिलाफ जहर उगल रहे हैं, उसकी ही सरकार ने रमजान के दौरान कश्मीर में संघर्ष विराम का ऐलान किया था। बेशक उस संघर्ष विराम के नतीजे कुछ भी मिल रहे हों, लेकिन रमजान के दौरान अमन, अहिंसा की कोशिश तो की गई। उसी मोदी सरकार ने मुस्लिम औरतों के संदर्भ में ‘तीन तलाक’ के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी और उसे ‘अवैध’ करार दिलाया। क्या मौलाना इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ हैं और चुनावी फतवा जारी किया है? कैराना में किसानों और गन्ने के भुगतान का मुद्दा बेहद संवेदनशील है। कैराना में ही चीनी मिलों को 800 करोड़ रुपए से ज्यादा का भुगतान किसानों को करना है। कुल भुगतान 12,000 करोड़ रुपए से अधिक है। यह एक सरकारी मामला है। बेशक चुनाव को प्रभावित करेगा, लेकिन इसमें मुल्लाओं के फतवे की भूमिका क्या है? गन्ने के अलावा कैराना में लंबे-लंबे जाम, महिला सुरक्षा, हिंदुओं का पलायन और सांप्रदायिक दंगे भी अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं। ऐसे ही वक्त में ईसाई आर्कबिशप की चिट्ठी जारी होती है और देवबंद फतवा जारी करता है। लोकतंत्र को खतरे में मानने वाले तथ्यों के आधार पर तो बताएं कि ऐसा क्यों है? दरअसल खतरे में मजहबी चौद्दर है। मोदी सरकार ने चर्च से जुडे़ करीब 1800 एनजीओ के अवैध ‘विदेशी चंदे’ पर ढक्कन लगवा दिया। मुसलमानों की अनाप-शनाप गतिविधियों पर रोक लगवा दी। अब मदरसों में भी आधुनिक शिक्षा दिए जाने के प्रयास जारी हैं। वैचारिक स्तर पर भी ज्यादातर मुसलमान प्रधानमंत्री मोदी से नफरत करते हैं, लिहाजा चुनावी फतवों की भी नौबत आ गई है। यह भी कैसे संभव है कि चुटकी भर ईसाई और वैटिकन सिटी के निर्देश 134 करोड़ के भारत के लोकतंत्र को परिभाषित कर सकते हैं? मोदी सरकार ने सत्ता में अपने चार साल पूरे किए हैं, लिहाजा सवाल उनके निर्णयों, उनकी नीतियों और शुरू किए गए कार्यक्रमों पर किए जा सकते हैं। चुनाव उन सवालों के आधार पर लड़े जा सकते हैं। यदि लोकतंत्र ही खतरे में होगा, तो संसद और विधानसभा के लिए चुनाव ही क्यों होंगे? यह फतवा कैराना में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के हालात भी पैदा कर सकता है। तब भाजपा को नुकसान होने के बजाय फायदा हुआ, तो कमोबेश मौलानाओं से फतवे का हक छीन लेना चाहिए।

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