मौसम से कठिन मुकाबला

By: May 9th, 2018 12:05 am

फिर किसान-बागबान बेबस और आम नागरिक आकाशीय मुद्रा के सामने वक्त के अनूठे अंक गणित में मौसम को कोस रहा है। अपने अतीत के चक्र से बेखबर मौसम का हिमाचली अंदाज इनसानी अस्तित्व की अनिश्चितता से जोड़ने की कसरत भर नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन का जबरदस्त पैगाम बन चुका है। हिमाचल में मई का महीना, न सर्दी और न ही गर्मी का रहा, बल्कि एक नई छटपटाहट में डूबा मौसम अपने भेद खोल रहा है। पहाडि़यों पर बर्फ की तहें लंगोट कस रही हैं, तो कबायली एहसास की पलकें फिर बंद होने लगीं। भयानक-भयावह और वीभत्स होते मौसम के बीच केवल हिमाचल अपने आपदा प्रबंधन की परीक्षा ही दे सकता है, क्योंकि कठोर हवाओं के बीच न पहाड़ सोता है और भारी बरसात में न नदी कभी रोती है। फलोत्पादन पर मार करती कड़क हवाएं, तूफानी बारिश तथा खेत में बिखरे बीज की पहरेदारी में किसान की आशाएं। चोटिल खेती, पांव पसारे तूफान की चेतावनी के बावजूद सामने चट्टानी पहाड़ ने काफी कुछ रोक लिया होगा, फिर भी पहाड़ी मेहनत के विफल होते परिदृश्य में वही कसूरवार। हमने पहाड़ को बदलने की इतनी कोशिश कर डाली कि अब इसके दामन में हवा भी षड्यंत्रकारी हो गई और किस पल मौसम करवट बदल लेगा, यह पर्वत की लाचारी हो गई। इसलिए कोई अडि़यल या सड़क पर कब्जा जगाए सूखा सा पेड़ आंधी में शहतीर बनकर उड़ता है, तो हर बार पहाड़ी माणू की छत ही टूटती है, लेकिन पर्यावरण संरक्षण का यह नजारा नीतियों की मोटी तह के नीचे छिप जाता है। मौसम से इनसान का मुकाबला पहले से कठिन, लेकिन प्रगति के मुआयने पर निकला विकास कोई सबक नहीं लेता। मानवीय असमानता और प्रकृति के विरुद्ध खड़ी मीनारें हमारे अस्तित्व के बोझ को इतना बढ़ा चुकी हैं, कि मौसम भी हमसे दूर होने लगा। हम आंधियों का वैज्ञानिक आधार, गर्म हवाओं का घटता दबाव और पर्वत से निकली ठंडी हवाओं का रुख तो माप सकते हैं, लेकिन मानवीय प्रवृत्ति के खोट से निरंतर खोखले होते संसार की बदलती तासीर को शायद ही रोक पाएंगे। इसलिए पिछले कई घंटों के निष्कर्ष में बादलों का खौफ हमारी अपनी छत से टकराता है या गर्मी में सर्द हो चुकी हवाओं का वेग किसान-बागबान के सपनों को उड़ा ले जाता है। दौलत के बूटे जिस जमीन से उखड़ रहे हैं, वहां सेब, नाशपाती, प्लम, आम या लीची के टूटने से बागबान का दिल टूट रहा है। मौसम के साथ यूं तो हिमाचल के संघर्ष की कहानी हमेशा से विचित्र परिस्थितियों का संयोग रही है, लेकिन इस बार अप्रत्याशित व असंभव सा होने लगा है। मौसम अब केवल अलर्टनुमा होकर वार्षिक कैलेंडर पर हस्ताक्षर करता है। न मौसमी विज्ञान के खुलासों पर भरोसा होता है और न ही कृषि-बागबानी के विज्ञानी फसलों को बदलते मौसम से बचाने का ढंग बता पा रहे। वक्त को मौसम के नजरिए से चिन्हित करना मुश्किल है, इसलिए आपदा प्रबंधन की चौकसी बढ़ जाती है। विकास को प्रतिबंधित करना कठिन है, इसलिए कायदे-कानूनों की डगर पर सख्ती से सुधरना होगा, वरना कब काल अपनी करवट बदल कर विकराल हो जाए, किसी को पता नहीं। फिलहाल मौसम के वर्तमान परिदृश्य की चुनौतियां समझनी होंगी। कहीं सामुदायिक जवाबदेही में देखेंगे, तो इनसान के रिश्ते जल, जमीन और जंगल से एक साथ जुड़े मिलेंगे। वक्त और सभ्यता का संतुलन इन्हीं तीन भुजाओं से जुड़ता है और जहां इनसानी फितरत का मुआयना भी इनके प्रति जिम्मेदारी का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मौसम से भयावह अगर इनसान होगा, तो आकाश की आंखें भी लाल होंगी। यही सब और सभी ओर होने लगा है।

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