सामुदायिक सेवा में उद्योग जगत

By: May 15th, 2018 12:05 am

सामाजिक जवाबदेही का अलख जगाकर शिक्षा विभाग का परियोजना निदेशालय अगर व्यापारिक-औद्योगिक घरानों के पास जाना चाहता है, तो दायित्व के पालने निश्चित रूप से बड़े हो जाएंगे। गरीब व वंचित परिवारों के बच्चों को शिक्षा का ऐसा पालना चाहिए, जो सामाजिक संवेदना की जागीर सरीखा हो। इस अनूठे अभियान का लक्ष्य मजदूरों के बच्चों में शिक्षा की लौ जलाना है, तो दूसरी ओर समाज के अंधकार के खिलाफ दीये की रोशनी बनकर निजी सहयोग को ईंधन बनाना है। शिक्षा विभाग व एसएसए ने अपने सर्वेक्षण में पूरे प्रदेश में ऐसे बच्चे चिन्हित करते हुए यह पाया कि इनकी परवरिश की परिभाषा बदलने की आवश्यकता है। यह कार्य अगर निजी क्षेत्र के बुलंद इरादों से जोड़ा जाए, तो सैकड़ों नन्हे हाथों में कलम और पेंसिल आएगी तथा वे अपने मां-बाप से अलग जिंदगी व समय की धुरी पर खड़े हो पाएंगे। ऐसे अनेक प्रयास कुछ व्यापारिक व औद्योगिक प्रतिष्ठान अतीत में करते रहे हैं। कुछ गांव गोद लेने की परंपरा भी रही है, लेकिन इस बार सीधे गरीब के घर में आशा का दीया जलाने का प्रयास हो रहा है, यानी शिक्षा से महरूम बच्चों को अत्यंत सौहार्दपूर्ण वातावरण में परवरिश देने के लिए उद्योग समूहों की मदद ली जाएगी। प्रदेश में इस आशय के विशेष स्कूलों का संचालन और बच्चों को मां-बाप की मजबूरियों से अलहदा रहने-खाने व पढ़ने की पूर्ण व्यवस्था होती है, तो पहली बार शिक्षा अपने आंचल में समाज के ऐसे दर्द को भी समेट लेगी। ऐसा नहीं है कि शिक्षा क्षेत्र में निजी सहयोग की कर्मठता पहले नहीं थी, लेकिन अंतर यह है कि इसे लक्ष्यबद्ध करके चयनित पांच हजार से अधिक बच्चों को मजबूत आसरा दिया जाएगा। समुदाय की सेवा में उद्योग जगत का सहयोग, एक तरह से छवि को परिमार्जित करना भी है। बीबीएन में उद्योगों के साथ नकारात्मक प्रभाव को पूरा परिवेश महसूस कर रहा है और ऐसा कमोबेश हर क्षेत्र के औद्योगिक केंद्रों के प्रति जनता का नजरिया रहा है। कानूनी तौर पर भारत अब ऐसा देश है, जहां औद्योगिक घरानों की समाज के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित है। ऐसी कई नीतियां व पद्धतियां प्रचलन में हैं, जहां निजी तौर पर समाज की बुनियाद रखी जा रही है। ऐसे में शिक्षा क्षेत्र में औद्योगिक व व्यापारिक प्रतिष्ठान अगर सामुदायिक कर्त्तव्य निर्वहन में भागीदारी निभाते हैं, तो इससे लक्ष्यों में गुणात्मक प्रसार होगा। शिक्षा के अलावा खेल व सांस्कृतिक परिदृश्य में भी निजी क्षेत्र के साथ सरकार को अपने लक्ष्य साझा करने होंगे। प्रदेश के धरोहर स्थल तथा मेलों की विरासत को अगर निजी क्षेत्र का सहयोग मिले तो हिमाचल अपनी सामाजिक भूमिका के नए उल्लेख कर सकता है। खासतौर पर पारंपरिक कुश्तियों के अलावा विविध खेलों के लिए ढांचागत सुविधाओं में उद्योग व बैंकिंग क्षेत्र की सहभागिता आमंत्रित की जा सकती है। प्रदेश में फुटबाल, बैडमिंटन, वालीबाल के साथ-साथ अन्य कई खेल अकादमियों का संचालन औद्योगिक-व्यापारिक घरानों के साथ मिलकर किया जाए, तो हिमाचल का खेल वातावरण सुदृढ़ होगा। प्रदेश के प्रमुख सहकारी बैंकों, विभिन्न बोर्ड तथा निगमों को भी शिक्षा व खेल के उत्थान में अपनी-अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी होगी। इस दिशा में पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने हमीरपुर और धर्मशाला के सिंथेटिक टै्रक के निर्माण में सीमेंट उद्योग का सहयोग प्राप्त किया था, तो अब शिक्षा की पहुंच गरीब के घर तक इसी तरह पहुंच सकती है। स्कूली शिक्षा के साथ-साथ उच्च शिक्षा में भी औद्योगिक घरानों का सहयोग प्राप्त किया जाए, तो गुणात्मक दृष्टि से वांछित ढांचा विकसित होगा।

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