हमें नहीं चाहिए जिन्ना!
भारत की आजादी और विभाजन के 70 साल बाद भी, भारत में जो उनकी पैरोकारी आज भी कर रहे हैं, वे तत्कालीन इतिहास को नहीं जानते हैं। मुहम्मद अली जिन्ना की विभाजनकारी हरकतों को नहीं जानते हैं। शायद उनमें ज्यादातर ऐसे लोग भी होंगे, जिन्हें 1946 के जिन्ना के ‘डायरेक्ट एक्शन’ (प्रत्यक्ष कार्रवाई) के आह्वान की जानकारी ही नहीं होगी! पुराने, ग्रेट कलकत्ता की सड़कों पर हजारों हिंदुओं की लाशें और खून की धाराएं बिछी थीं। किसी भी गोरे अंग्रेज और मुसलमान पर हमला नहीं किया गया था। कलकत्ता के पास नोआखली में जिन्ना को मनाने खुद गांधी जी, जवाहर लाल नेहरू, राजगोपालाचारी सरीखे कांग्रेस नेता गए थे। दरअसल भारत का विभाजन उसी दौरान हो गया था। गांधी ने अनशन तक की धमकी दी थी, लेकिन जिन्ना के मंसूबे साफ थे। वह मुसलमानों के अधिकारों के मद्देनजर अलग देश चाहते थे। उनका मानना था कि हिंदू और मुसलमान, एक ही देश में, साथ-साथ नहीं रह सकते। यदि इकट्ठा रहना पड़ा, तो हालात गृहयुद्ध जैसे होंगे। जो मुसलमान पाकिस्तान जाना चाहते थे, वे ‘प्रत्यक्ष कार्रवाई’ के बाद उसी दिशा में जाने लगे थे। विभाजन के दौरान भी लाखों मासूम लोग मारे गए। ऐसे गद्दार, राष्ट्र-विरोधी, विभाजक नेता की तस्वीर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में 70 लंबे सालों तक दीवार पर सजी रही, यह भारत और उप्र सरकारों की लापरवाही के अलावा कुछ भी नहीं है। जिन्ना न तो शिक्षक थे, न मेधावी विद्यार्थी और न ही राष्ट्र-नेता थे, तो फिर उनका सम्मान क्यों किया जाता रहा? हमें जिन्ना की जरूरत नहीं है, न ही वह वैचारिक नेता थे, सिर्फ देश को विभाजित करना जानते थे, लिहाजा उनका चित्र यूनिवर्सिटी परिसर के बाहर फेंक देना चाहिए था। यदि पाकिस्तान हमारे राष्ट्रीय नेताओं का सम्मान नहीं कर सकता, तो हमें उसके ‘कायदे आजम’ का सम्मान करने की जरूरत क्या है? गांधी जी तो यहां तक झुक गए थे कि जिन्ना को भारत का प्रधानमंत्री तक बनाने को तैयार थे, लेकिन जिन्ना भारत को दोफाड़ करना ही जानते थे। जिन्ना कांग्रेस के सदस्य थे, लेकिन मुस्लिम लीग की भी सदस्यता ले रखी थी। 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान जिन्ना ने भारत का नहीं, अंग्रेजों का समर्थन किया था। उससे पहले 1940 में मुस्लिम लीग के ‘लाहौर अधिवेशन’ के दौरान जिन्ना ने ‘अलग पाकिस्तान’ बनाने का प्रस्ताव पारित करवाया था। ऐसे शख्स के भी स्वतंत्र भारत में पैरोकार हो सकते हैं, ‘जिन्ना हाउस’ को एक सांस्कृतिक केंद्र बनाने की मांग कर सकते हैं और राष्ट्र-निर्माण में जिन्ना का योगदान भी मानते हैं, दरअसल यह सोच हैरान भी करती है और दुर्भाग्यपूर्ण भी लगती है। जिन्ना हिंदू-मुसलमान को बिल्कुल अलग कौमें मानते थे, लेकिन आज पाकिस्तान से ज्यादा सुखी मुसलमान हिंदुस्तान में बसे हैं और उन्हें देश के तमाम संवैधानिक हुकूक हासिल हैं। मुसलमान भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति बने हैं। 1937 के असेंबली चुनाव में जिन्ना ने मुसलमानों के लिए ‘अलग निर्वाचन क्षेत्र’ मांगे थे, लेकिन आजाद भारत में मुसलमान मुख्यधारा के साथ ही रहते हैं और अपने मौलिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हैं। इतने लंबे सालों के बाद भी जो जिन्ना का समर्थन करते हैं और उनके लिए आंदोलन करने पर आमादा हैं, उन्हें वाकई पाकिस्तान चले जाना चाहिए। यह उन पैरोकारों का मौलिक और लोकतांत्रिक अधिकार नहीं है। ऐसी जमात देश के ‘अदृश्य दुश्मन’ के पक्ष में पथराव, फायरिंग कैसे कर सकती है और उसे सहन भी कैसे किया जाता रहा है। एएमयू के आसपास का माहौल बेहद उत्तेजक है। पुलिस के अलावा पीएसी की बटालियन तैनात करनी पड़ी है। गोलीबारी भी हुई है। आखिर ऐसा क्यों…देश के दुश्मन के एक चित्र की खातिर…! पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को छात्र संघ द्वारा एएमयू की आजीवन सदस्यता दी जानी थी, लेकिन उन्हें बैरंग लौटना पड़ा। एएमयू के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है, जब किसी गणमान्य अतिथि को बिना सदस्यता के वापस जाना पड़ा हो। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने एएमयू के कुलपति और जिला प्रशासन से हालात की रपट मांगी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिन्ना की तस्वीर संबंधी जांच करवाने की घोषणा की है। बहरहाल तनाव हर पक्ष में है और कारण जिन्ना की तस्वीर है। उस तस्वीर के कारण हम आपस में तनाव क्यों पालें? उसे उतार कर फेंक देना चाहिए या लपेट कर पाकिस्तान उच्चायोग को सौंप देनी चाहिए।
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