आत्म पुराण

By: Jun 30th, 2018 12:05 am

शंका-हे भगवन! जिस पुरुष की बुद्धि अंतरात्मा के विचार में तत्पर हो चुकी है, वह यदि नित्य नैमित्तिम कर्म करता रहे, तो क्या हानि है?

समाधान-हे जनक! अधिकारी पुरुष की जो बुद्धि आत्मा के विचार में तत्पर हो चुकी है, उन्हें नित्य-नैमित्तिक कर्मों की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इनसे भी बुद्धि बहिर्मुखी होती है।

शंका-हे भगवन! संन्यास धारण करने पर भी भिक्षा टन आदि कर्म करता ही है। वैसे ही संध्या, अग्निहोत्रादि कर्म भी करता रहे तो क्या हानि है?

समाधान-संध्या अग्निहोत्रादि कर्म चित्त की तत्परता के बिना संभव नहीं। इससे बुद्धि बहिर्मुखः होती है, पर भिक्षाटन में कोई दोष इसलिए नहीं कि उसके लिए चित्त की तत्परता की आवश्यकता नहीं होती, वरन् वह भूख लगने पर स्वयंमेव ही हो जाती है।

शंका-हे भगवन! आत्म साक्षात्कार होने से अधिकारी पुरुष को किस फल की प्राप्ति होती है।

समाधान- हे जनक! मैं अद्वितीय ब्रह्म रूप हूं, यह अभेद ज्ञान जिस अधिकारी पुरुष को प्राप्त हो जाता है, उसकी अविद्या रूप माया निवृत्त हो जाती है। वह माया आचरण शक्ति और विक्षेप शक्ति युक्त है। ऐसी अविद्या रूप माया आत्म साक्षात्कार होने से जब एक बार नाश हो जाता है तो फिर उत्पन्न नहीं होती।

इस विभु आत्मा में जो परिच्छिन्नता प्रतीत होती थी, वह अविद्या रूप माया से ही होती थी। आत्म साक्षात्कार होने से यह विद्वान पुरुष उस परिच्छिन्न भाव को त्यागकर अपनी आत्मा को सब जीवों की आत्मा के रूप में देखने लगता है। यह सर्वात्म भाव की प्राप्ति ही आत्म साक्षात्कार का महान फल है।

 हे जनक! इस प्रकार गुरु वेदांत और शास्त्र के उपदेश से जिस अधिकारी पुरुष ने आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है उनके स्वरूप को पाप-पुण्य रूप कर्म स्पर्श नहीं कर सकते। भगवान कृष्ण ने भी अर्जुन से यही कहा था।

ज्ञानाग्निः सर्व कर्माणि भस्मसात कुरुते तथा’ 

अर्थात यह ज्ञान रूप अग्नि विद्वान पुरुष के सब कर्मों को दग्ध कर देती है।

हे जनक! नाना प्रकार के साधनों से युक्त जो ब्रह्म विद्या सूर्य भगवान ने हमारे प्रति उपदेश की थी। उस संपूर्ण ब्रह्म विद्या का  उपदेश मैंने तुमको दे दिया है। उस ब्रह्म विद्या के श्रवण करने से तुमको आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ है। इससे

तुम जन्म-मरण रूप संसार के भय का परित्याग करके  अपने चित्त में प्रसन्न होओ।

याज्ञवल्क्य मुनि के वचन सुनकर राजा जनक ने विनय पूर्वक कहा, हे भगवन! यह विदेह प्रदेश और मेरी जितनी भी संपदा है वह सब मैं आपको अर्पण कर चुका हूं। अब मैं अपने पुत्रादि कुटुंब सहित आपकी सेवा में दास की तरह उपस्थित हूं। आप जहां चाहो वहां हमको ले चलो अथवा अब आप इस मिथिलापुरी में ही निवास करो, क्योंकि आपके बिना अब मैं एक क्षण भर नहीं रह सकता। राजा को इस प्रकार अत्यंत दीनता पूर्वक प्रार्थना करता देख याज्ञवल्क्य ने कृप करके मिथिलापुरी के समीप वन में आश्रम बनाकर रहना स्वीकार कर लिया। बहुत काल पश्चात वे याज्ञवल्क्य अपनी स्त्री को ब्रह्म विद्या का उपदेश करके राजा जनक के साथ संन्यास ग्रहण करके विदेह मोक्ष को प्राप्त हुआ।

इतनी कथा कह कर गुरुदेव ने कहा, हे शिष्य! याज्ञवल्क्य द्वारा उपदेश की हुई समस्त ब्र्रह्म विद्या हमने तुमको सुना  दी। अब जो कुछ और तुम सुनना चाहो उसके लिए अपना मनोरथ प्रकट करो।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App