प्रणब का एक और गलत कदम

By: Jun 4th, 2018 12:07 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

कांग्रेस में कुछ ऐसे सदस्य भी हैं जो यह विश्वास कर रहे हैं कि प्रणब आरएसएस के मंच से बहुलतावाद पर कोई प्रभावी संदेश देंगे। इसी तरह की भावनाएं व्यक्त करते हुए कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने कहा है कि हमें यह विश्वास करना चाहिए कि प्रणब मुखर्जी कोई विवेकशील फैसला ही लेंगे। वह हमसे ज्यादा बुद्धिमान हैं। लेकिन मेरा मानना है कि सलमान का यह तर्क एक कमजोर तर्क है। नागपुर में आरएसएस के मंच पर प्रणब की मौजूदगी राष्ट्र को भ्रांति में डाल देगी क्योंकि देश के हर नागरिक ने कांग्रेस नेताओं के मुंह से अब तक यही बात सुनी है कि संघ की विचारधारा बहुलतावाद के ठीक उलट है…

प्रणब मुखर्जी सभी राजनीतिक संबद्धताओं के आदमी हैं। एक कांग्रेसी के रूप में वह सबसे उच्च पद तक पहुंचे हैं तथा वह कांग्रेस में अपने कुछ सहयोगियों  से मिलकर एक राजनीतिक दल का संचालन भी कर चुके हैं। लेकिन राजनीतिक परिदृश्य में उन्हें कोई भी एक स्व-निर्मित व्यक्ति कह सकता है। उन्होंने नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्यालय का दौरा कर कैडर को संबोधित करने का आमंत्रण स्वीकार कर लिया है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को संबोधन में कहा गया है, ‘मुखर्जी को आमंत्रण स्वीकार करते हुए बेहद प्रसन्नता हो रही है।’ यह आश्चर्यजनक है क्योंकि इस स्थान पर कभी भी बहुलतावाद तथा समतावाद के आदर्श का प्रतिनिधित्व करने वाले महात्मा गांधी का चित्र नहीं लगाया गया। यह आदर्श हिंदू राष्ट्र की स्थापना का मंतव्य रखने वाली आरएसएस विचारधारा के लिए अनुकूल नहीं है। मैं प्रणब मुखर्जी को एक विनम्र आदमी के रूप में याद करता हूं। उन्होंने मुझे एक बार अपने घर पर अपनी पत्नी, जो संगीतज्ञ हैं, का संगीत सुनने के लिए बुलाया था। तब वह एक राजनेता के रूप में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनका आवास बिल्कुल कम फर्नीचर के साथ साधारण नजारा पेश कर रहा था। उन्हें साधारण आदतों के आदमी के रूप में जाना जाता था। लेकिन कुछ वर्षों के बाद सब कुछ बदल गया जब उन्होंने अपने आपको शक्ति वाले एक धनाढ्य नेता के रूप में स्थापित कर लिया। आपातकाल के दौरान भी मैं उनके घर गया था। मुझे तब यह देख कर आश्चर्य हुआ था कि अब उनके यहां बेहतर साज-सज्जा वाला सीटिंग रूम था। वह उस समय इंदिरा गांधी सरकार में वाणिज्य मंत्री थे तथा उन संजय गांधी के करीब थे जो संविधानेतर शक्तियां रखते थे तथा व्यवहार में शक्ति की बागडोर संभाले हुए थे।

खुल कर कहूं तो उस समय प्रणब मुखर्जी वह शख्स थे जो संजय गांधी की मंडली से आदेश लेकर बाहर आते थे। वास्तव में बाद में संजय गांधी ने एक ओर प्रणब मुखर्जी तथा दूसरी ओर तत्कालीन रक्षा मंत्री बंसी लाल को बिठाकर देश पर राज किया था। इस अवधि के दौरान प्रणब मुखर्जी ही संजय गांधी के कहने पर लाइसेंस जारी करते अथवा रोकते थे। पूरे देश में आलोचकों के घरों व दुकानों पर छापेमारी भी की गई थी। राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी एक गलत चयन थे तथा उन्हें मिसाल के तौर पर यह पद अस्वीकार कर देना चाहिए था। जब सोनिया गांधी ने उन्हें इस पद के लिए नामित किया तो उनकी आलोचना हुई थी। परंतु उनकी ओर से यह उस वफादार व्यक्ति के लिए तोहफा था जो यहां तक कहता था कि अगर सोनिया कहेंगी, तो सूरज पश्चिम से उग सकता है। वह एक अन्य ज्ञानी जैल सिंह थे जिन्हें इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित करवा दिया था। प्रणब मुखर्जी का यह आततायी शासन एक लोकतांत्रिक देश के लिए बेइज्जती की तरह था। उन्होंने पद ग्रहण करके संविधान का उल्लंघन किया है।

मैंने वह अवधि भी देखी है जब वह राष्ट्रपति भवन में थे। तब मुझे इस बात का खौफ था कि उनका शासन पर होना नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। मेरा मानना है कि अगर वह एक संवेदनशील व्यक्ति होते तो आपातकाल के दौरान के 17 महीनों के दौरान जो कुछ गलत हुआ, उसे वह महसूस करते। अगर और कुछ नहीं तो उन्हें कम से कम आपातकाल लगाने के लिए पछतावा तो प्रकट करना ही चाहिए था। इस आपातकाल के दौरान एक लाख से अधिक लोगों को बिना मुकदमा चलाए जेल में ठूंस दिया गया था, प्रेस पर पाबंदियां लगा दी गई थीं तथा सरकारी कर्मचारी सही व गलत तथा नैतिक व अनैतिक में भेद करना भूल गए थे। चूंकि सोनिया गांधी अपने पुत्र राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी तथा उन्हें आशंका थी कि प्रणब मुखर्जी इस रास्ते में आ सकते हैं, इसलिए उन्होंने प्रणब को राष्ट्रपति बनाना ही बेहतर समझा। इसी कारण उन्होंने वर्ष 2014 का चुनाव न लड़ने की भी घोषणा की जिससे राहुल गांधी का मार्ग प्रशस्त हो गया। सोनिया गांधी ने उन्हें राष्ट्रपति इसलिए बनाया क्योंकि उन्होंने गांधी वंश की वफादारी से सेवा की थी। आपातकाल हटने के  बाद जब 1977 में आम चुनाव हुए थे तो लोगों ने उन्हें तथा इंदिरा गांधी को हराकर ठीक ही किया था। मैं यह मानता हूं कि सबसे उच्च पद पर उनका मनोनयन राष्ट्र के मुंह पर एक तमाचा है। मैंने अपेक्षा की थी कि पूर्व राष्ट्रपति उस अवधि को याद करते जब वह राष्ट्रपति भवन में थे तथा उन्होंने कम से कम एक बार यह मिसाल दी होती कि लोकतंत्र व बहुलतावाद का समर्थन किया होता। कदाचित लोगों ने यह महसूस किया होगा कि उन्हें नीचा दिखाया गया है जैसा कि उन्होंने अपने राष्ट्रपतित्व में किया। अगर हमारे देश में लोकपाल का पद होता तो उन्होंने यह बात सामने लाई होती कि पूर्व  राष्ट्रपति कहां विफल हुए हैं। दुख की बात है कि राष्ट्रपति के कार्यों का मूल्यांकन करने के लिए ऐसा कोई संस्थान नहीं है। संस्थानों के मुखिया पर आम तौर पर कटाक्ष नहीं किए जाते हैं। इसके पीछे विचार यह है कि आलोचना संस्थानों को क्षति पहुंचा सकती है। आलोचना न करना तथा राजनीति से संस्थानों को दूर रखना अब लोकतंत्र का एक मूलभूत सिद्धांत बन गया है। राष्ट्रपति का पद भी ऐसा ही है जिसकी आम तौर पर आलोचना नहीं होती, इसे राजनीति से ऊपर रखा गया है। यहां तक कि जब राष्ट्रपति सीमाएं लांघ जाते हैं, तब भी उन्हें आलोचना से मुक्त रखा जाता है। हो सकता है कि इसी कारण प्रणब मुखर्जी अपने खिलाफ किसी कार्रवाई से बच गए हों। सांप्रदायकि ताकतों के खिलाफ जो लड़ाई चल रही है, उसे प्रणब ने जानबूझकर बेअसर करने का प्रयास किया है। यह भी तो हो सकता है कि आरएसएस व भाजपा यह प्रचार करना शुरू कर दें कि नागपुर सांप्रदायिक ताकतों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है क्योंकि प्रणब मुखर्जी ने आरएसएस कैडर को संबोधित करने का फैसला कर लिया है। हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस ने भी उनके इस कदम की आलोचना में कुछ नहीं कहा है। जिस तरह की चुप्पी कांग्रेस ने साधी हुई है, ऐसा लग रहा है कि यह एक तरह की मौन स्वीकृति है। हालांकि कांग्रेस के एक पूर्व मंत्री ने उनसे अपने इस फैसले पर पंथनिरपेक्षता के हित में पुनर्विचार करने की अपील की है। यह बात भी आसानी से समझी जा सकती है कि केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने प्रणब के इस कदम की यह कहकर पैरवी की है कि वह किसी आईएसआई शिविर की यात्रा करने नहीं जा रहे हैं। इसके बावजूद इस मसले पर कांग्रेस बंटी हुई नजर आ रही है।

कांग्रेस में कुछ ऐसे सदस्य भी हैं जो यह विश्वास कर रहे हैं कि प्रणब आरएसएस के मंच से बहुलतावाद पर कोई प्रभावी संदेश देंगे। इसी तरह की भावनाएं व्यक्त करते हुए कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने कहा है कि हमें यह विश्वास करना चाहिए कि प्रणब मुखर्जी कोई विवेकशील फैसला ही लेंगे। वह हमसे ज्यादा बुद्धिमान हैं। लेकिन मेरा मानना है कि सलमान का यह तर्क एक कमजोर तर्क है। नागपुर में आरएसएस के मंच पर प्रणब की मौजूदगी राष्ट्र को भ्रांति में डाल देगी क्योंकि देश के हर नागरिक ने कांग्रेस नेताओं के मुंह से अब तक यही बात सुनी है कि संघ की विचारधारा बहुलतावाद के ठीक उलट है। वास्तव में सोनिया गांधी व राहुल गांधी ने प्रणब की इस यात्रा के लिए उनकी आलोचना नहीं की है। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो वे तेजी से अप्रासंगिक हो रही पार्टी (कांग्रेस) की ओर राष्ट्र का ध्यान फिर से खींचने में कामयाब हो गए होते।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com

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