शिमला के शहरी संबोधन

By: Jun 11th, 2018 12:05 am

शिमला में जलसंकट भले ही सरकार के नियंत्रण में आ गया, लेकिन इस विषय की समीक्षा पर्वतीय शहरीकरण को संबोधित न करने की खामी बता रही है। हमने शिमला को केवल सत्ता के केंद्र या राजधानी के रुतबे में देखा है, जबकि इसकी मिलकीयत में देश का इतिहास व नागरिक शिष्टाचार समाहित रहा है। बेशक आजाद सपनों के शिमला ने जब से आंखें खोलनी शुरू की, तब से यह शहर केवल एक शहर के रूप में फैल रहा है, जबकि हमारे नीति नियंताओं ने आज तक शहरीकरण की हिमाचली रफ्तार को अहमियत ही नहीं दी। न हमारे पास शहरीकरण की नीति है और न ही इसका नेतृत्व पैदा हुआ। शिमला का जलसंकट वास्तव में शहरीकरण का खस्ताहाल प्रबंधन है और अगर आज इसकी जद में शिमला है, तो कल हिमाचल के हर छोटे-बड़े शहर की इससे बुरी हालत हो सकती है। दुर्भाग्यवश हमने शहरीकरण के खाते न तो चौड़े किए और न ही योजनाओं  को कई सालों के प्रारूप में कोई आधार दिया। इस कारण जो बाधाएं उत्पन्न हो चुकी हैं, उनमें से जलापूर्ति केवल एक कड़ी परीक्षा साबित हुई, जबकि  अन्य भी दरपेश हैं। जरा सोचें कि जब शिमला ही अपनी क्षमता का उचित विस्तार नहीं कर पाया, तो बाकी तथाकथित शहरी कस्बों का क्या होगा। इस पर भी नागरिक असंतोष यह कि हर प्रकार की सुविधा पूरी तरह से कर मुक्त हो। इसीलिए शहरीकरण को संबोधित करने के बजाय इसे हालात के ऊपर छोड़ दिया गया। जाहिर है हिमाचल का शहरीकरण  मैदानी इलाकों से भिन्न और पर्यावरणीय संतुलन के करीब से होकर गुजरना चाहिए था। शिमला को कितने वाहन, कितने मकान चाहिएं, ताकि यहां की जीवनशैली सुरक्षित रहे। ग्रीन सिटी की अवधारणा में क्या हमने शहरीकरण में मानवीय मूल्य और कौशल ढूंढा। कुल मिलाकर देखें तो हिमाचल में प्रशिक्षित अर्बन प्रोफेशनल्ज की कमी है, इसलिए नागरिक संपर्क कमजोर तथा दिशाहीन हो चुका है। हिमाचल में आए भौतिक, भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक परिवर्तनों की राह पर खड़े शिमला के अपने वजूद को क्या मिला। न माकूल आर्थिक संसाधन और न ही वित्तीय प्रबंधन, बल्कि शहर भीड़ बनकर उन्मादी हो गया और प्रकृति से विरक्त प्रगति की परिभाषा में खुद का शेखचिल्ली बन गया। शिमला ने तरक्की का जो पहरावा चुना, उसके शृंगार में शिमला को गौरव नहीं मिला। अगर प्रगति किसी मूल सिद्धांत का उल्लंघन न होती तो न्यू शिमला पुराने का ही अवतार होता। क्यों आज भी शिमला केवल माल रोड या रिज पर तसदीक होता है, यह प्रश्न अगर पहले खंगाल लिया होता, तो शहर की सीमाएं प्रकृति के साथ जुड़ी रहतीं या परिवहन के शोर से दूर हर बस्ती शांत दिखाई देती। अगर नए शिमला या शिमला पर सवार होते कई शिमलों का डिजाइन दुरुस्त रखा होता, तो पानी की पाइपें न सूखतीं और न ही प्यासे को चिल्लाना पड़ता। शिमला अपने अधूरेपन पर जो प्रश्न पूछ रहा है, वे कमोबेश हिमाचल के शहरीकरण पर चस्पां हैं। हमें यह तय करना होगा कि प्रदेश के शहरी क्षेत्रों के संचालन, शासन तथा नागरिक सुविधाएं किस तरह उपलब्ध हों। पर्वतीय शहरों पर घटती जमीन को देखते हुए दो-तीन शहरों के क्लस्टर बनाकर योजनाएं इस तरह बनें कि कचरा प्रबंधन, आवासीय तथा परिवहन सहूलियतें एक साथ काम आएं। हिमाचल में शहरी विचारक की भूमिका में विजन और प्रतिबद्धता के साथ शहरीकरण की मौजूदा रफ्तार को समझना होगा। शहरों के संचालन में अधोसंरचना, पुरानी संपत्तियों की देखरेख तथा नए क्षेत्रों के विकास में वांछित वित्तीय व्यवस्था नहीं होगी, तो आबादी की नगरीय अभिलाषा में सारे आर्थिक परिवर्तन, केवल गरीब व्यवस्था ही देख पाएंगे। सेब की लाली में आप शिमला की कसौटियां तय नहीं कर सकते, बल्कि इसके आवरणीय  जरूरतों का हल तलाशना होगा।

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