सतयुग का आगमन : कब और कैसे

By: Jun 9th, 2018 12:05 am

सतयुगी ऋषि परंपरा से तात्पर्य है उन लोगों का वर्चस्व जिन्होंने अपने दृष्टिकोण और जीवन यापन की प्रक्रिया में दूरदर्शी विवेकशीलता, पुरुषार्थ परायणता और उदात्त सहजीवन की क्रिया-प्रक्रिया को अपने जीवन में भली प्रकार उतारा और दूसरों के लिए अनुकरण का पथ प्रशस्त किया…

गतांक से आगे…

सतयुग के समय की प्रामाणिक काल गणना उपलब्ध नहीं है और न उस समय का आभास कराने वाला पदार्थ परक प्रमाण ही उपलब्ध है। फिर भी उपलब्ध कथा पुराणों के आधार पर यह संगति बिठाई जा सकती है कि ऋषि युग हजारों वर्ष पूर्व से आरंभ होकर रामायण काल तक चलता रहा होगा। उस अति प्राचीन काल की इमारतें, वस्तुएं, शिलालेख आदि का अस्तित्व ऋतु प्रभाव और काल प्रवाह से बचा नहीं रह सका। किंतु जो इतिहास, श्रुति, स्मृति के आधार पर हाथ लगता, उससे मनुष्यों की विचारणा एवं कार्य पद्धति का अनुमान अवश्य लगता है। इस आधार पर यह निष्कर्ष भी निकलता है कि मानवी गरिमा के अनुरूप चिंतन, चरित्र और व्यवहार की अवधारणा रखने वाले परिश्रमी पुरुषार्थी रहे होंगे। वे नीति, नियमों को कठोरतापूर्वक अपनाते होंगे। संयम अपनाते और उदात्त सेवा साधना में निरत रहते हुए सहकारी जीवन जीते होंगे।

यह प्रयोग तो अभी भी किया जा सकता है कि सज्जनों का समुदाय सद्भावपूर्वक जहां रहेगा, मर्यादाओं का पालन करने और वर्जनाओं से बचने की रीति अपनाएगा, वहां स्वल्प साधनों में प्रसन्न रहने और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने-चलने की स्थिति बनती और टिकती रहेगी। सतयुगी ऋषि परंपरा से तात्पर्य है उन लोगों का वर्चस्व जिन्होंने अपने दृष्टिकोण और जीवन यापन की प्रक्रिया में दूरदर्शी विवेकशीलता, पुरुषार्थ परायणता और उदात्त सहजीवन की क्रिया-प्रक्रिया को अपने जीवन में भली प्रकार उतारा और दूसरों के लिए अनुकरण का पथ प्रशस्त किया। ऋषि उन्हें कहा जाता था जो आत्मवत् सर्वभूतेषु की वसुधैव कुटुंबकम की भावनाओं को निरंतर क्रियान्वित करते रहते थे। ऐसे लोगों का प्रतिभाशाली होना स्वाभाविक है।

लोक नेतृत्व कर सकने की कुंजी सहज ही उनके हाथ आ जाती है। वरिष्ठों की छत्रछाया में रहना सभी पसंद करते हैं। वरिष्ठ ही सार्थक रूप से समर्थ होते हैं। शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ, आर्थिक दृष्टि से समर्थ भी दूरदर्शी व कुशल होते हैं। वे निजी जीवन में संयम साधते हैं। सादा जीवन,

उच्च विचार की परंपरा को व्यावहारिक जीवन में उतारते हैं। ऐसी दशा में निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताओं को सरलतापूर्वक जुटा लेने के अतिरिक्त इतना समय-साधन बना भी लेते हैं, जो दूसरों को उठाने-बढ़ाने के काम आ सके। इस स्तर के लोग जब भी बहुसंख्यक होंगे और अपने प्रभाव-वैभव का उपयोग जन कल्याण के निमित्त करेंगे, तब ऐसी परिस्थितियां अवश्य ही बनती चली जाएंगी जिनमें हर किसी को समुचित सुविधा रहे, किसी को भी अज्ञान, अशांति और अभाव के कारण दुखी न रहना पड़े। सद्भावना और सेवा साधना को खाद-पानी की तरह समझना चाहिए जिसके उपलब्ध होते रहने से विश्व उद्यान का हर कोना हरा-भरा ही दृष्टिगोचर होता है। जब भी ऐसी परंपरा व्यापक रूप से चल रही होगी, जब भी परिस्थितियों में सात्विकता का समुचित समावेश रहा होगा, तब समूचा वातावरण ऐसी सुख-शांति और प्रगति से भरा-पूरा रहा होगा जिसे सतयुग का नाम निःसंकोच दिया जा सके।

 -क्रमशः

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